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तिलकमंजरी का साहित्यिक अध्ययन
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सभी समुद्र सम्बन्धी वस्तुओं को उपमान बनाया गया है । इसी प्रकार इसके सहयोगी मल्लाहों के प्रसंग में सभी उपमान कृष्णवर्णी तथा जलसम्बन्धी वस्तुओं के हैं। गोपललनाओं के प्रसंग में उनकी तुलना सभी गोरस सम्बन्धी वस्तुओं से की गयी है । वेताल के नखों की कांति को गधे की तुण्ड के समान धूसर वर्ण का कहा गया है । अतः धनपाल अपने अलंकार-प्रयोग में औचित्यत्व के प्रति पूर्ण रूप से सचेत थे । अलंकार का उचित प्रयोग जहां काव्य का सौन्दर्य बढ़ाता हैं, वही अनुचित होने पर रस का बाधक बन जाता है। क्षेमेन्द्र (11 वीं शती) के अनुसार अलंकार वही हैं जो उचित स्थान पर प्रयुक्त किये जायें। काव्य के शोभाधायक धर्मों को अलंकार कहा जाता है । "अलंकरोति इति अलंकारः" यह अलंकार शब्द की व्युत्पत्ति है । अतः जो काव्य के शरीर भूत शब्द तथा अर्थ को अलंकृत करे, वह अलंकार है।
अलंकारों का विभाजन प्रमुखतया दो विभागों में किया गया है । शब्दालंकार तथा अर्थालंकार । जो अलंकार शब्द परिवृत्ति को सहन कर लेते हैं, वे अर्थालंकार कहलाते हैं तथा शब्द परिवृत्ति को सहन नहीं करने वाले शब्दालंकार कहलाते हैं। शब्दालंकार
___ शब्दालंकारों में अनुप्रास, यमक, श्लेष तथा पुनरूक्तवदामास का प्रयोग तिलकमंजरी में हुआ है।
(1) अनुप्रास-वर्णों का साम्य अनुप्रास कहा जाता है! अर्थात् स्वर भिन्न होने पर भी केवल व्यंजनों की समानता होने पर अनुप्रास अलंकार होता
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1. इन्दुकान्ततटवालण्यं ललाटेन, शुक्तिसौन्दर्य श्रवणयुगलेन, मौक्तिकाकारं दन्तकुड्मविदुमरागमोष्ठेन...
-तिलकमंजरी, पृ. 126 काककोकिलकलविककण्ठकालकायेर्मकररिवातपसेवितुमकूपारमध्यादेकहेलयानिर्गतर्मद्गुभिरिव...
-वही, पृ. 126 वही, पृ. 118 4. आवद्धास्थिनूपुरेण स्थवीयसा चरणयुगलेन रासभप्रोथघूसरं नखप्रभाविसरम्...
-वही, पृ. 46 5. क्षेमेन्द्र, औचित्यविचारचर्चा, पृ. 1, चौखम्बा संस्कृत सीरीज, बनारस,
1933 6. काव्यशोभाकरान् धर्मानलंकारान् प्रचक्षते ।
-दण्डी, काव्यादर्श, 2/1
वहा,