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तिलकमंजरी, एक सांस्कृतिक अध्ययन
अलंकार हैं। इसी प्रकार जहां अनेकार्थक पदों से रचित एक काव्य से अनेक अर्थ लगाये जाते हैं, वहां अर्थ-श्लेष होता है। अतः इन्हीं चार मूल तत्वों को ध्यान में रखते हुए कवि कुछ हेरा-फेरी के साथ भिन्न-भिन्न तरीकों से अपने मनोभाव प्रकट करता है, उसी से अलंकार के अनेक भेद-प्रभेद बन जाते हैं।
___ तिलकमंजरी में सभी प्रमुख अर्थालंकारों का प्रयोग हुआ है। तिलकमंजरी में अलंकारों का सर्वत्र ही प्रचुर प्रयोग होने के कारण सभी का उद्धरण देना असंभव है, अतः स्थाली-पुलाव न्याय से प्रत्येक अलंकार के दो-दो, तीन-तीन उदाहरण यहां दिये जायेंगे । उपमा. उत्प्रेक्षा, रूपक, ससन्देह, समासोक्ति निदर्शना, दृष्टान्त, अतिशयोक्ति, तुल्ययोगिता, व्यतिरेक, विशेषोक्ति, अर्थान्तरन्यास, विरोधाभास, स्वाभावोक्ति, सम, विषम, तद्गुण सहोक्ति, व्याजस्तुति, परिसंख्या, काव्यलिंग, कारणमाला, इन 23 प्रमुख अर्थालंकारों का लक्षण तथा उदाहरण सहित क्रमशः विवेचन किया जायेगा।
(1) उपमा-उपमा को समस्त अलंकारों का मूल कहा गया है। प्राचीन तथा अर्वाचीन सभी अलंकारिकों ने उपमा के अनेक भेद-प्रभेद करके उसी में अनेक अलंकारों का अन्तर्भाव कर यह सिद्ध कर दिया है कि उपमा काव्यालंकारों में प्राणभूत है। महिमभट्ट ने 'सर्वेष्वलंकारेषुपमा जीवितायते' कहकर उपमा की महिमा का गान किया है। रूययक ने उपमा को अनेक अलंकारों में बीज-भूत कहा है । अप्पय-दीक्षित (16वीं शती) के अनुसार उपमा वह नटी है जो काव्यरूपी नाट्यशाला में अकेली ही विभिन्न अलंकारों के रूपों को धारण कर अपना नृत्य दिखाती हुई सहृदयों के हृदय को आह्लादित करती है । राजशेखर ने उपमा को अलकारों का शिरोरत्न, काव्य का सर्वस्व यहां तक कि कवियों की माता के समान कहा है । उपमा के इसी प्राधान्य के कारण सभी अलंकारिकों ने अर्थालंकारों में सर्वप्रथम उपमा का ही उल्लेख किया है।
1. वही, 9/1 2. वही, 10/1 3. रूययक, अलंकारसर्वस्व, उपमैवानेकालंकारबीजभूता
-उद्धृत, अलंकार मीमांसा : रामचन्द्र द्विवेदी, पृ. 206 4. उपमंका शैलूषी संप्राप्ता चित्रभूमिकाभेदान् । रज्जयति काव्यरंगे नृत्यन्ती तद्विदां चेतः ॥
-अप्पयदीक्षित, चित्रमीमांसा, पृ. 5, काव्यमाला 38, 1907 अलंकारशिरोरत्नं सर्वस्वं काव्यसम्पदाम् । उपमा कविवंशस्य मातेवेति मतिर्मभ ॥
-उद्धृत, केशवमिश्र, अलंकारशेखर पृ. 32