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तिलकमंजरी, एक सांस्कृतिक अध्ययन
धनपाल की भाषा-शैली शैली
धनपाल ने तिलकमंजरी की प्रस्तावना में काव्य-गुणों के वर्णन के व्याज से अपनी गद्य-शैली का आदर्श प्रस्तुत किया है ।1 इन पद्यों में धनपाल ने अपने पूर्ववर्ती गद्य-कवियों के गद्य की त्रुटियों को स्पष्ट रूप से बताया है ।
धनपाल ने कहा है कि अतिदीर्घ, बहुतरपदघटित समास से युक्त तथा अधिक वर्णन वाले गद्य से लोग भयभीत होकर उसी प्रकार विरक्त होते हैं, जैसे घने दण्डकवन में रहने वाले अनेक वर्ण वाले व्याघ्र से ।
___ इस पद्य में धनपाल ने संस्कृत गद्यकाव्य की दो प्रमुख विशेषताओं, दीर्घ समास तथा प्रचुर वर्णन की ओर संकेत किया है। समास को संस्कृत गद्य का प्राण कहा गया है । समास ने अधिकतम अर्थ को न्यूनतम शब्दों में व्यक्त करने की सामर्थ्य प्रदान की है। समास बहुलता ओज-गुण का प्रधान लक्षण है तथा ओज गद्य का प्राण है। अत: दण्डी ने कहा है-"ओजः समासमयस्त्वमेतद् गद्यस्य जीवितम् ।"3 इसी ओज गुण के कारण गद्य में विचित्र प्रकार की भावग्राहिता तथा गाढबन्धता का संचार होता है । धनपाल का आविभाव उस युग में हुआ था जब काव्य-क्षेत्र में कालिदास की सरल-सुगम स्वाभाविक शैली के स्थान पर भारवि, माघ की अलंकृत शैली प्रतिष्ठित हो चुकी थी तथा गद्य-काव्य के क्षेत्र में सुबन्धु, बाण तथा दण्डी की विकटगाढ बन्धयुक्त गद्य शैली अपने चरमोत्कर्ष पर थी। सप्तम शती में गद्य का जो परिष्कृत रूप इन तीनों गद्यकवियों की कृतियों में देखने को मिला, वह उसके पश्चात् तीन शताब्दियों तक लुप्त प्रायःसा हो गया । दशम शताब्दी से पूर्व किसी उत्तम गद्य रचना का उल्लेख संस्कृत साहित्य में नहीं मिलता। धनपाल ने इस अभाव का अनुभव किया तथा गद्य को पूनर्जीवित करने का श्लाघनीय प्रयास किया। इस प्रयास में धनपाल ने अपने पूर्ववर्ती कवियों के गद्य की त्रुटियों को पहचाना तथा अपने गद्य को उनसे सर्वथा मुक्त रखा । धनपाल ने परम्परा से हटकर, जन-मानस के अध्ययन के फलस्वरूप उसकी रुचियों को ध्यान में रखते हुए अपनी वाणी को मुखरित किया है। यही उल्लेख करते हुए धनपाल ने कहा है कि दण्ड के समान लम्बे-लम्बे समास तथा अत्यधिक विस्तृत वर्णन जन के हृदय में विरक्ति व भय उत्पन्न करते हैं । इस कथन में धनपाल ने स्पष्ट रूप से बाण की शैली की ओर संकेत किया है। ऐसा
1. तिलकमंजरी-प्रस्तावना, पद्य 15, 16, 17 2. अखण्डदण्डकारण्यभाज: प्रचुरवर्णकात् ।
व्याघ्रादिवभयाघ्रातो गद्याद्द्यावर्तते जनः ।। 3. दण्डी, काव्यादर्श, 1-30
-वही, पद्य 15