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तृतीय अध्याय
धनपाल का पांडित्य
ईश्वर-प्रदत्त प्रतिभा से समन्वित, लोक व्यवहार जन्य अनुभव तथा शास्त्र अर्थात् वैदिक, पौराणिक, दार्शनिक साहित्य तथा व्याकरण, कोष, अर्थशास्त्र, धर्मशास्त्रादि के गूढ अध्ययन एवं पूर्ववर्ती कवियों के काव्यों का पर्यालोचन से उत्पन्न व्युत्पनि, काव्य की सृष्टि का कारण बनती है। मम्मट के अनुसार शक्ति, लोक, शास्त्र तथा काव्यादि के पर्यालोचन से उत्पन्न निपुणता और काव्य के ज्ञाता की शिक्षा के अनुसार पुन: पुनः अभ्यास, ये तीनों समष्टि रूप से काव्योत्पत्ति के कारण हैं।
प्रस्तुत अध्याय में व्युत्पत्ति की दृष्टि से धनपाल की तिलकमंजरी का मूल्यांकन किया गया है। यह अध्ययन (क) वेद-वेदांग, (ख) पौराणिक कथायें, (ग) दार्शनिक सिद्धान्त एवं (घ) अन्य शास्त्र नामक चार भागों में विभाजित किया गया है।
धनपाल उस युग के कवि हैं जिसमें राजाओं के दरबार में वैदग्ध्य तथा पाण्डित्य की सरणि बहा करती थी तथा कवि उस धारा में आकण्ठ निमग्न होकर अपनी काव्य कल्पनाओं को पल्लवित किया करते थे। उनकी रचनाओं में पांडित्यप्रदर्शन की होड़-सी मची रहती थी। धनपाल के काव्य में भी उनके वैदग्ध्य की झलक पद-पद पर प्राप्त होती है तथा उनके विविधतापूर्ण पाण्डित्य का परिचय मिलता है । मुंज ने उन्हें "सरस्वती" विरुद से सम्मानित किया था।
वेद तथा वेदांग वेद
वेद के लिए त्रयी शब्द का प्रयोग दो बार किया गया है । वेद के लिए
1. शक्तिनिपुणता लोकशास्त्र काव्याद्यवेक्षणात् । . काव्यज्ञशिक्षयाभ्यास इति हेतुस्तदुद्भवे । -मम्मट, काव्यप्रकाश, 1/3 2. (क) त्रयीमिव महामुनिसहस्रोपासित चरणाम्"" -तिलकमंजरी, पृ. 24
(ख) त्रयीभक्त नेव गाढांचितहिरण्यगर्भकेशवेशेन... -वही, पृ. 200