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चतुर्थ अध्याय
तिलकमंजरी का साहित्यिक अध्ययन
कथा तथा आख्यायिका विभिन्न साहित्यशास्त्रियों ने गद्य-काव्य के दो भाग किये हैं -कथा तथा आख्यायिका । भामह, दण्डी, रुद्रट, आनन्दवर्धन तथा विश्वनाथ ने अपनेअपने काव्यशास्त्रीय ग्रन्थों में इस विषय पर विवेचन किया है । भामह के अनुसार आख्यायिका की कथावस्तु वास्तविक तथा ऊदात्त होती है, जिसे नायक स्वयं वक्ता के रूप में कहता है । यह उच्छवास नामक विभागों में विभक्त रहती है, जिसके प्रारम्भ में तथा अन्त में भावी घटनाओं के सूचक पद्य वक्त्र तथा अपरवक्त्र छंदों में निबद्ध होते हैं । कन्या हरण, संग्राम, वियोग तथा विजय के सूचक कुछ वर्णन इसमें कवि की अपनी कल्पना से सम्मिलित करता है । इसके विपरीत कथा में न तो वक्त्र और न अपरवक्त्र छंद युक्त पद्य होते हैं और न ही उच्छवासों का विभाग रहता है । कथा का वक्ता भी नायक से इतर कोई व्यक्ति होता है तथा कथावस्तु कवि की कल्पना से प्रसूत होती है । कथा संस्कृत अथवा अपभ्रंश भाषा में लिखी जाती है।
इस प्रकार भामह के अनुसार कथावस्तु, वक्ता, विभाग, छन्द तथा भाषा, ये कथा व आख्यायिका के विभाजक तत्व हैं। दण्डी ने भामह के इस वर्गीकरण की बड़े जोरदार शब्दों में आलोचना की तथा कथा एवं आख्यायिका को एक ही गद्य जाति की दो विभिन्न संज्ञायें बताया । वस्तुत: बाणभट्ट ने कादम्बरी तथा
1. भामह, काव्यालंकार 1, 25-29 2. दण्डी, काव्यादर्श 1, 23-30 . 3. रुद्रट, काव्यालंकार 16, 20-30
__ आनन्दवर्धन, ध्वन्यालोक 5. विश्वनाथ, साहित्यदर्पण 7, 332-36
भामह-काव्यालंकार 1, 25-29 तत्कथाख्यायिककेत्येका जातिः संज्ञाद्वयाङ्किता।
-दण्डी, काव्यादर्श, 1/23-30