________________
तिलकमंजरी, एक सांस्कृतिक अध्ययन
त्रिकालदर्शी मुनि से अपने पूर्वजन्मों का ज्ञान होता है । जो कथा प्रारम्भ में ज्वलनप्रभ ने राजा मेघवाहन से शक्रावतार आयतन में संकेतरूप में कही थी, वहीं यहां विस्तार से वर्णित की गई है । यहां आकर कथा की समस्त गुत्थियां सुलझ जाती हैं तथा कथानक का समस्त रूप स्पष्ट हो जाता है तथा वह अपने उद्देश्य के चरमोत्कर्ष पर पहुँच जाता है ।
48
इस प्रकार चतुर शिल्पी धनपाल ने अत्यन्त कलात्मक ढंग से एक सीधे सादे कथानक को पांच सुन्दर नाटकीय मोड़ों में प्रस्तुत करके अत्यन्त रोचक बना दिया है ।
तिलक मंजरी के कथानक की लौकप्रियता
गद्यकाव्य के उत्कृष्ट निदर्शन तिलकमंजरी काव्य की संस्कृत साहित्य इतिहासकारों ने सर्वथा उपेक्षा की है। ए. बी. कीथ सदृश विद्वान् भी इस काव्य की गणना परवर्ती गद्यकाव्यों में करते हैं और वह भी केवल यह कहकर कि इसमें कादम्बरी के सदृश अधिकाधिक चित्र खींचकर उसकी नकल करने की कोशिश की गयी है । 1 इन्हीं पाश्चात्य विद्वान का अन्धानुकरण करते हुए भारतीय विद्वान् भी इस ग्रन्थ का अध्ययन किये बिना ही 'इसमें समरकेतु तथा तिलकमंजरी का प्रेम वर्णित किया गया है," इस भ्रमित कथन को दोहराते हैं तथा धनपाल को बाण का अनुकरणकर्त्ता मात्र कहकर उसके महत्व को नगण्य कर देते हैं । 2 भारतीय विद्वानों द्वारा पाश्चात्य विद्वानों का यह अन्धानुकरण तथा इतिहासकारों की परस्पर गतानुगतिकता अत्यन्त शोचनीय है । डॉ० कीथ, डॉ० डे तथा डॉ० कृष्णमाचार्य जैसे प्रसिद्ध विद्वान् एक ही भूल को निरन्तर दोहराते हैं ।
धनपाल ने बाण को अपना आदर्श मानकर, उनकी शैली की विशेषताओं को अवश्य अपनाया है, किन्तु उसकी नकल की है, यह कहना अनुचित है ।
1. Keith, A. B. ; (A) Classical Sanskrit Literature, p. 69, Calcutta, 1958.
2.
(B) A History of Sanskrit Literature, p. 331 London, 1961.
(A) De, S. K. & Dasgupta, S. N. :
A History of Classical Sanskrit Literature Vol. I, p. 431, 1947.
(B) Krishnamacharior, M: A History of Classical Sanskrit Literature, p. 475, Madras, 1937: