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तिलकमंजरी, एक सांस्कृतिक अध्ययन
मैंने भी अपने आपको समुद्र को अर्पित कर दिया, किन्तु आंख खुलने पर मैंने अपने आपको अपनी शयनशाला में सोते हुए पाया, जहां मेरी सखी बन्धुसुन्दरी मेरे पार्श्व में खड़ी थी । बन्धुसुन्दरी को मैंने अपना समस्त वृतान्त कहा । इसके पश्चात् मेरे कुछ दिन बहुत शोक में बीते ।
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वसन्त के आगमन पर मदन त्रयोदशी के दिन चेटी ने आकर यह सूचना दी कि आपको कामदेव की पूजा करने हेतु कामदेव मन्दिर जाना है । अगले दिन अयोध्या के राजा मेघवाहन के सेनापति वज्रायुध के साथ आपकी सम्प्रदान-विधि है । शत्रु से सन्धि करने का एक मात्र उपाय यही है । इस समाचार से उद्विग्न मैंने मृत्यु का निश्चय कर लिया। अपने माता पिता से मिली और गृहोद्यान के अपने प्रिय सभी वृक्षों और पक्षियों से विदा लेकर अपने आवास में भाई | अस्वस्थता के बहाने से बन्धुसुन्दरी को भी घर भेज दिया, किन्तु बन्धुसुन्दरी मेरे इस विपरीत आचरण से शंकित होकर द्वार के पीछे ही छिप गई । तब प्रमदवन के पक्षद्वार से निकलकर मैं कामदेव मन्दिर में आई । यात्रोत्सव के कारण देख लिए जाने के भय से बाहर से ही प्रणाम कर उद्यान में आई और अशोक वृक्ष की शाखा पर अपने ही आवरण पट्ट से मृत्यु पाश बनाया । सभी लोकपालों को अपने प्रेम का साक्षी बनाकर, अगले जन्म में भी उसी राजकुमार से संगम हो, यह प्रार्थना करते हुए ग्रीवा में फंदा डाल दिया किन्तु तभी बन्धुसुन्दरी ने कामदेव मन्दिर में ठहरे हुए एक राजकुमार की सहायता से मुझे बचा लिया । चेतना आ पर मैंने देखा कि मेरी प्राण रक्षा करने वाला मेरा प्रेमी समरकेतु ही है । मेरे पूछने पर समर बताया कि किस प्रकार वे किमी अलौकिक शक्ति द्वारा समुद्र में डूबने से बचा लिए गए और किनारे पर लाये गये । तारक ने उसे मलयसुन्दरी को खोजने के लिए कांची चलने को कहा, किन्तु उसी समय पिता चन्द्रकेतु का एक दूत यह संदेश लेकर आया कि उसके पिता के मित्र कांची नरेश कुसुमशेखर की सहायता हेतु सेना का नेतृत्व करने के लिए उसे कांची प्रस्थान करना है । इस प्रकार कांची आकर, कामदेवोद्यान में चैत्र यात्रा में आने वाली प्रत्येक स्त्री का निरीक्षण करने पर भी मलयसुन्दरी के न मिलने पर निराश समरकेतु वहीं उद्यान में अकेला बैठ गया, तभी बन्धुसुन्दरी का आक्रन्दन सुना ।
यह सुनकर बन्धुसुन्दरी ने मेरा हाथ समरकेतु के हाथ में सौंप दिया और देखे जाने से पूर्व मेरा अपहरण कर ले जाने के लिए कहा । समरकेतु ने इसे अनुचित बताते हुए कहा कि उसे अपने पिता की आज्ञानुसार पहले कांची नरेश के शत्रु से लोहा लेना है । यह कह कर वह अपने शिविर में लौट गया ।