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तिलकमंजरी की कथावस्तु का विवेचनात्मक अध्ययन
मुनि के पुनः अन्तिरिक्ष में चले जाने पर, राजा अपने हर्म्यशिखर से उतरा और अपने गुरुजनों, बान्धवों और बुद्धि-सचिवों से इस विषय में परामर्श किया । तत्पश्चात् उनकी अनुमति प्राप्त कर, उसने प्रमदवन के मध्य क्रीडापर्वत के समीप देवता-गृह का निर्माण करवाया और शुभदिन में भगवती श्री की प्रतिमा प्रतिष्ठापित की तथा मुनि उपदिष्ट विधि से प्रतिदिन उसकी अर्चना करने लगा । एक दिन देवी की सायंकालिक पूजा से निवृत्त होकर राजा नगर के बाह्योद्यान स्थित शक्रावतार नामक सिद्धायतन में गया, जहां प्रवेश करते ही उसने एक दिव्य पुरुषक के दर्शन किए। उस वैमानिक की दिव्यायु समाप्त प्राय: थी । उसने राजा से कहा- "मैं सौधर्म नामक देवलोक का वासी ज्वलनप्रभ नामक वैमानिक हूं । भगवान् ऋषभदेव के दर्शन के लिये यहां आया हूं। मुझे नन्दीश्वर द्वीप की रतिविशाला नगरी में अपने मित्र सुमाली से मिलने जाना है ।' इस प्रकार अपना परिचय देने के पश्चात् उसने राजा को एक अनुपम दिव्य हार भेंट में दिया । वह हार ज्वलनप्रभ की पत्नी प्रियङ्ग सुन्दरी का था ।
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ज्वलनप्रभ के चले जाने पर राजा ने उस हार को देवी श्री के चरणों में अर्पित कर दिया । उसी समय देवी की मूर्ति के निकट भीषण अट्टहास करते हुए एक वेताल प्रकट हुआ, जिसने अत्यन्त भीषण व वीभत्स रूप धारण किया हुआ था । वेताल ने कहा- संसार में प्रायः ऐसा व्यवहार देखा जाता है कि फलाभिलाषी सेवक पहले देवता के सेवकों की सेवा करके, उनके प्रसाद को प्राप्त करता है और उनके द्वारा स्वामी के प्रति अपनी भक्ति प्रदर्शित करता है । किन्तु आपकी सेवाविधि तो सर्वथा विपरीत है । आप वस्त्र, माल्य, अलंकारादि से इस देवी की तो निरन्तर अर्चना करते हैं, किन्तु मेरे जैसे सदा इसके साथ रहने वाले सेवकाग्रजन को आहार- दान के लिये भी निमन्त्रित नहीं करते । मुझ से मित्रता करने पर ही आपकी अभीष्ट सिद्धि हो सकती है । मैं तो निशाचर हूं, अतः फल- मूल से मुझे कोई प्रयोजन नहीं है । तुमने अनेक युद्ध किये हैं, और उनमें अनेक राजाओं का वध भी किया है, अतः मुझे ऐसे एक राजा का कपाल - कर्पर प्रदान करो, जो कभी युद्ध में न हारा हो, जिसने प्राण-संशय उत्पन्न होने पर भी शत्रु को प्रणाम न किया हो तथा जिसने किसी याचक को निराश न किया हो । उसके कपालकर्पूर के रक्त से मैं अपने पिता का तर्पण करूंगा ।"
यह सुनकर राजा ने स्वयं अपना सिर काटकर भेंट देने के लिये कृपाण को स्कन्ध पर रखा, किन्तु उसकी बाहु स्तम्भित हो गई । उसी समय अलौकिक देह-प्रभा से दशों दिशाओं को आलोकित करती हुई भगवती श्री प्रकट हुई । उसकी भक्ति प्रवणता तथा साहस से प्रसन्न होकर श्री ने कहा- हे राजन् ! मैं