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तिलकमंजरी, एक सांस्कृतिक अध्ययन
उपदेशरत्नाकर के कर्ता मुनिसुन्दरसूरि (1319) ने अपने ग्रन्थ में ऋषभ-पंचाशिका की 41वीं गाथा का उद्धरण दिया है। इसी प्रकार जिनेश्वरसूरि कृत पंचलिंगीप्रकरण की टीका में जिनपतिसूरि ने ऋषभपंचाशिका की गाथाओं को उद्धरित किया है।
ऋषभपंचाशिका के अंतिम पद्य में कवि ने अपना नाम निर्देश किया है।
4. श्रावकविधिप्रकरण (सावयविहि) वा श्रावकधर्म विधिप्रकरण
22 गाथाओं की इस प्राकृत रचना में श्रावक के धर्म का विवेचन किया गया है। इस पर संघप्रभसूरि के शिष्य धर्मचन्द्रगणि ने वृत्ति लिखी है। इसको आधार बनाकर गुणाकरसूरि ने वि.सं. 1371 में श्रावकविधिरास की रचना की थी।
5. शोभन स्तुति की संस्कृत टीका'
धनपाल के भ्राता शोभन मुनि ने 24 तीर्थंकरों की स्तुति में यमक अलंकारयुक्त 96 पद्यमय स्रोत्र की रचना की थी। प्रभावकचरित के अनुसार शोभन की ज्वर से मृत्यु हो जाने पर धनपाल ने भ्रातृ-प्रेम के कारण इस स्तुति
1. मुनिसुन्दरसूरि, उपदेशरत्नाकर, द्वितीय अंश, तरंग 15 2. जिनेश्वरसूरि, पंचलिंगीप्रकरण, जिनपति की टीका, पृ० 67 3. इअ झाणग्गिपलीविअकम्मि घण । बालबुद्धिणा विमए । भत्तया स्तुतो भवमयसमुद्रयानपात्र । बोधिफल ।
-ऋषभपंचाशिका, गाथा 50 4. मुक्तिकमल जैन मोहनमाला-17 में प्रकाशित, बड़ौदा वीर० स० 2447 5. Velankar, H. D., Jinaratnakosa Part I, B. O. R. I.,
p. 393, 1944 6. कापड़िया, हीरालाल रसिकदास-प्राकृत भाषा अने साहित्य,
पृ० 207, 1940 7. (क) काव्यमाला (सप्तम गुच्छक), 1890 पृ० 132
(ख) आगमोदयसमिति-52, बम्बई 1926 8. इतश्च शोभनो विद्वान् सर्वग्रन्थमहोदधिः । यमकान्विततीर्थेशस्तुतीश्चक्रे ऽतिभक्तितः ।।
-प्रभावकचरित, महेन्द्रसूरिचरित, पद्य 315