________________ 26] श्री तेरहद्वीप पूजा विधान नन्दनवन दूजो सघन रूप, तीजो सोमनस बनो अनूप। चौथोवन पांडुक है विशाल जहां सुरखग मुनिवंदत त्रिकाल॥ जिनराज जन्म अवसर सुपाय, तब इन्द्र महोत्सव करै आय। इस विधि वन चार कहें खन्य,दिस चार सरव सोलहसुधन्य॥ तहां इकर जिनमंदिर सुजान,सत आठ अधिक प्रतिमा प्रमान। उपमा सब समवसरण निहार,सुरपति सिर नावत वार वार॥ जै सिंहासन अद्भुत विशाल, तापर सुकमल सोहै विशाल। ता ऊपर श्री जिन शोभमान, जै तीन छत्रसिर घरें जान॥ जै अमर सुढारत चरम सार, जे तन द्युति छाय रही अपार। तहां देवी देव करें सु गान, जहां नाचत सुर अरु सुरी आन॥ जै साज समाज बनो अनूप, इन्द्रादिक निरखें जिन स्वरूप। शशि सूर्य कोट द्युतउदय जान,ऐसी छबि जिनतनकी प्रमान॥ पूजा कर इन्द्र गये सु थान, जिन भक्ति हिये धारै सुजान। जै स्वयं सिद्ध रचना अपार,कविको पावे गुण अगम सार॥ घत्ता-दोहा मेरु सुदर्शनकी भई, पूजा सरस विशाल। जे भवि पढ़े उत्साहसों, सुख पावैं सोहाल॥३८॥ सोरठा-धरै कंठ यह हार, बहुगुण रचत सुहावनो। ते होवें भव पार, मन वच तन भवि जो पढ़ें // 39 // इति जयमाला। अथाशिर्वाद (कुसुमलता छन्द) मध्यलोक जिन भवन अर्कीतम, ताको पाठ पढ़ें मन लाय। जाके पुन्य तनी अति महिमा, वरणन को कर सके बनाय॥