________________ 64] श्री तेरहद्वीप पूजा विधान जै जै तहां काल छहो सुरीत, वरतै जिन आगम कही मीत। जै तीन कालमें भोगभूम, जै कल्पवृक्ष तहां रहै झूम॥ जब चौथा काल करै प्रवेश तब कर्मभूम लागी अशेश। तब तीर्थंकर चौवीस होय, वसु कर्मनाश शिव लहै सोय॥ चक्री बल नारायण सु जान, प्रत्येक सब मिल त्रेसठ महान। यह चोंथे काल पर्यंत होय, पंचम छट्टममें नहीं कोय॥ यह क्षेत्र तनी विध कही सार, तहां जैनी जीव वसैं अपार। ताबीच पड़ो बैताड आन, तापर नौ कूट विराजमान॥ वसु कूट सरस सुन्दर अवास, तहां बिंतरदेव करें निवास। श्री सिद्धकूट नौमो सुजान, जहां श्रीजिनमंदिर शोभमान॥ जै रचना समवसरण प्रमान, बन रही अनादि तनी सुजान। सब रत्नमई द्युति दिपै सोय, ताकि उपमा वरनै सु कोय॥ ऐसो जिनभवन बनो महान, तिनमें जिनबिंब बिराजमान। तन ऊंच पांवसे धनुष काय पद्मासन छवि वरनी न जाय॥ शत आठ कहै जिन बिंबसार, सुर विद्याधर सेवत अपार। इन्द्रादिक पूजत श्री जिनंद, वसु द्रव्य चढावत अति अनंद॥ जै नृत्य कर बाजे बजाय, जै भावभक्ति उरमें सु लाय। जिनराज चरणको शीशनाय, निज२ थानक पहुँचे सुजाय॥ घत्ता-दोहा-ऐरावत वर क्षेत्रमें, मेरु सु उत्तर भाग। रूपाचलपर जिन भवन, वंदत सुर नर नाग॥२५॥ ताकी यह जयमाल है, पूरण मई विशाल। जिनगुण अगम अपार है बुद्धिहीन भविलाल // 26 // इति जयमाला।