________________ श्री तेरहद्वीप पूजा विधान [269 जहां मोक्ष मारग सदा चालै, कर्मभूम बनी रहैं। तीर्थेश बलि चक्री शहर, प्रतिहर सदा उतपति लहैं। तिस बीच रुपाचल पड़े जग सार हो, श्वेत वरन अभिराम। षोड़श सरस सुहावने जग सार हो, तापर श्री जिन धाम॥ धाम श्री जिनवर अकीर्तम, रतनजड़ित सु जगमगै। तसु मध्य वेदी स्फटिक मणिमई जासु देखत मन लसै॥ कटनी सु तीन कडी अनूपम सिंह पीठ सुहावनी। वसु प्रातिहार्य सु दर्व मंगल, यथायोग्य सुहावनी॥ सिंहासन पर कमल है जग सार हो, तापर श्री जिनदेव। आठ अधिक अर एकसौ जग सार हो, इन्द्र करैं शत सेव॥ शत इन्द्र सेवा करै सु जिनकी, अमर खग जय जय करें। निरजर त्रिदश खेचर तिया मिल, परम आनंद उर धरै // ले आठ दर्व त्रिकाल सुरपति जिनचरन पूजत भए। व्यंतर भवन जोतिष भवन, सब करत कौतुक नित नये॥ पद्धडी छन्द जै जै जग तारन परम देव, तुम चरननकी हम करत सेव। जै तुम जगनायक हो प्रधान, यातें तुम शरण गहीसुजान। जै जै तुम तारक सुनो कान तव उपजो हम उरमे सु ज्ञान। हम करत बीनती बार बार, करुणानिधि हमको तारतार॥ धत्ता दोहा-विद्युनगिरि पश्चिम दिशा, रुपाचल सु विशाल / तहां जिनभवन निहारकैं, लाल नवावत भाल॥ इति जयमाला।