________________ 200 ] श्री तेरहदाप पूजा विधान CuriosorununurIDCIRUPURIPIDURIPRIRURS समदृष्टी जीव कहें विशेष, व्रत शील दया पाले अशेष। जहां चारों विधको होत दान,लख पात्र देत श्रावक सुजान / / तहां गिरि वक्षार पड़े सु आठ, तिनपर जिनमंदिर सु ठाठ। सब समोसरण रचना विशाल, वेदीपर लटके रतन माल॥ जै सिंहासन पर कमल जान, तापर जिनबिंब विराजमान / सत आठ अधिक रचना प्रसिद्ध, यह रचना जानो स्वयं सिद्ध। सुर विद्याधरके ईश आय, जिनराज चरन पूजत बनाय। जुग हाथजोर भविमाथलाय,भविलाल सदा बलर सुजाय॥ घत्ता-दोहा मंदिरगिरि पूरव दिशा, गिर वक्षार विशाल। तिन जिनमंदिरकी सु यह, पूरन है जयमाल // 29 // इति जयमाल। अथाशीर्वादः - कुसुमलता छन्द मध्यलोक जिन भवन अकीर्तम, ताको पाठ पढे मन लाय। जाके पुन्यतनी अति महिमा, वरणन को कर सके बनाय॥ ताके पुत्र पौत्र अरू संपति, बालै अधिक सरस सुखदाय। यह भव जस पर भव सुखदाई, सुर नर पदले शिवपुर जाय॥ // इति आशीर्वादः॥ इति श्री मंदिरमेरुके पूर्व विदेह सम्बन्धी आठ वक्षार गिरिपर सिद्धकूट जिनमंदिर पूजा सम्पूर्णम्।