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कर्मसिद्धान्त का सम्यग्दर्शन स्वरूपच्युत किया जा रहा है । वे इसके नशेमें उस मानवसमत्वाधिकारको भूलकर अपने भाइयोंका खून बहानेमें भी नहीं हिचकिचाते। इस मानवसंहारयुगमें पशुओंके सुधार और उनकी सुरक्षाकी बात तो सुनता ही कौन है ? अतः परलोक सुधारके लिए हमें परलोकके सम्यग्दर्शनकी अवश्यकता है। हमें समझना होगा कि हमारा पुरुषार्थ किस प्रकार उस परलोकको सुधार सकता है।
परलोकमें स्वर्गके सुखादिके लोभसे इस जन्ममें कुछ चारित्र या तपश्चरणको करना तो लम्बा व्यापार है। यदि ३२ देवियोंके महासुखकी तीवकामनासे इस जन्ममें एक बढ़ी स्त्रीको छोड़कर ब्रह्मचर्य धारण किया जाता है तो यह केवल प्रवञ्चना है। न यह चारित्रका सम्यग्दर्शन है और न परलोकका । यह तो कामनाका अनचित पोषण है, कषायकी पूर्तिका दुष्प्रयत्न है। अतः परलोक सम्बन्धी सम्यग्दर्शन साधकके लिए अत्यावश्यक है।
कर्मसिद्धान्तका सम्यग्दर्शन___ जैन सिद्धान्तने सर्वग्रासी ईश्वरसे जिस किसी तरह मुक्ति दिलाकर यह घोषणा की थी कि प्रत्येक जीव स्वतन्त्र है। वह स्वयं अपने भाग्यका विधाता है। अपने कर्मका कर्ता और उसके फलका भोक्ता है। परन्तु जिस पक्षी की चिरकालसे पिंजरे में परतन्त्र रहनेके कारण सहज उड़ने की शक्ति कुंटित हो गई है उसे पिंजड़ेसे बाहर भी निकाल दीजिए तो वह पिंजड़ेकी ओर ही झपटता है। इसीतरह यह जीव अनादिसे परतन्त्र होने के कारण अपने मूल स्वातन्त्र्य-आत्मसमानाधिकारको भूला हुआ है। उसे इसकी याद दिलाते हैं तो कभी वह भगवान का नाम लेता है, तो कभी किसी देवी देवता का। और कुछ नहीं तो 'करमगति टाली नाहि टलै' का नारा किसीने छीन ही नहीं लिया। 'विधिका विधान' 'भवितव्यता अमिट है' आदि नारे बच्चे से बढ़ेतक सभीकी जबानपर चढ़े हुए हैं। ईश्वरकी गुलामीसे हटे तो यह कर्मकी गुलामी गले आ पड़ी।
मैंने बन्धतत्त्वके विवेचनमें कर्मका स्वरूप विस्तारसे लिखा है। हमारे विचार, वचन व्यहार और शारीरिक क्रियाओंके संस्कार हमारी आत्मापर प्रतिक्षण पड़ते हैं और उन संस्कारोंको प्रबोध देनेवाले पुद्गल स्कन्ध आत्मासे सम्बन्धका प्राप्त हो जाते हैं। आजका किया हुआ हमारा कर्म कल दैव बन जाता है। पुराकृत कर्मको ही दैव विधि भाग्य आदि शब्दोंसे कहते हैं । जो कर्म हमने किया है, जिसे हमने बोया है उसे चाहें तो दुसरे क्षण ही उखाडकर फेंक सकते हैं। हमारे हाथमें कर्मोकी सत्ता है। उनकी उदीरणा-समयसे पहिले उदयमें लाकर झड़ा देना, संक्रमण-साताको असाता और असाताको साता बना देना, उत्कर्षण-स्थिति और फल देनेकी शक्तिमें वृद्धि कर देना, अपकर्षण-स्थिति और फलदानशक्तिका हास कर देना, उपशम -उदयम न आने देना, क्षय-नाश करना, उद्वेलन क्षयोपशम आदि विविध दशाएँ हमारे पुरुषार्थके अधीन हैं । अमुक कोई कर्म बंधा इसका अर्थ यह कदापि नहीं कि वह वज्रलेप हो गया। बंधने के बाद भी हमारे अच्छे बुरे विचार और प्रवृत्तियोंसे उसकी अवस्थामें सैकड़ों प्रकारके परिवर्तन होते रहते हैं। हाँ, कुछ कर्म ऐसे जरूर बंध जाते हैं जिन्हें टालना कठिन होता है उनका फल उसीरूपमें भोगना पड़ता है । पर ऐसा कर्म सौ में एक ही शायद होता है।
___ सीधीसी बात है-पुराना संस्कार और पुरानी वासना हमारे द्वारा ही उत्पन्न की गई थी। यदि आज हमारे आचार-व्यवहार में शुद्धि आती है तो पुराने संस्कार धीरे धीरे या एकही झटकेमें समाप्त हो ही . जायँगे । यह तो बलाबल की बात है। यदि आजकी तैयारी अच्छी है तो प्राचीनको नष्ट किया जा सकता है, यदि कमजोरी है तो पुराने संस्कार अपना प्रभाव दिखाएँगे ही। ऐसी स्वतन्त्रस्थितिमें में "कर्मगति टाली नहीं टल" जैसे क्लीबविचारों का क्या स्थान है ? ये विचार तो उस समय शान्ति देनेके लिए है जब पुरुषार्थ करनेपर भी कोई प्रबल आघात आ जावे, उस समय सान्त्वना और सांस लेनेके लिए इनका उपयोग है। कर्म बलवान् था. पुरुषार्थ उतना प्रबल नहीं हो सका अत: फिर पुरुषार्थ कीजिए । जो अवश्यंभावी बातें हैं उनके हारा कर्मकी गतिको अटल बताना उचित नहीं है। एक शरीर धारण किया है, समयानुसार वह जीर्ण शीर्ण
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