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परलोकका सम्यग्दर्शन
मिलती है उसी तरह सिद्ध पर्यायपर भी दृष्टि रखनेसे आत्मोन्मुखता होती है । अतः निश्चय और व्यवहारका सम्यग्दर्शन करके हम निश्चयनयके लक्ष्य-आत्मसमत्वको जीवनव्यवहारमें उतारनेका प्रयत्न करना चाहिए। धर्म-अधर्मकी भी यही कसौटी हो सकती है । जो क्रियाएँ आत्मस्वभावकी साधक हों परमवीतरागता और आत्मसमताकी ओर ले जाँय वे धर्म है शेष अधर्म ।
परलोक का सम्यग्दर्शनधर्मक्षेत्रमें सब ओरसे 'परलोक सुधारों की आवाज सुनाई देती है। परलोकका अर्थ है मरणोत्तर जीवन । हरएक धर्म यह दावा करता है कि उसके बताए हुए मार्गपर चलनेसे परलोक सुखी और समद्ध होगा। जैनधर्ममें भी परलोकके सुखोंका मोहक वर्णन मिलता है। स्वर्ग और नरकका सांगोपांग विवेचन सर्वत्र पाया जाता है। संसारमें चार गतियाँ हैं-मनुष्यगति, तिर्यञ्चगति, नरकगति और देवगति। नरक अत्यन्त दुःखके स्थान हैं और स्वर्ग सांसारिक अभ्युदयके स्थान । इनमें सुधार करना मानवशक्तिके बाहरकी बात है। इनकी जो रचना जहाँ है सदा वैसी रहनेवाली है। स्वर्गमें एक देवको कमसे कम सदायौवना बत्तीस देवियाँ अवश्य मिलती हैं। शरीर कभी रोगी नहीं होता। खाने-पीने की चिन्ता नहीं। सब मनःकामना होते ही समुपस्थित हो जाता है। नरकमें सब दुःख ही दुःखकी सामग्री है।
यह निश्चित है कि एक स्थूल शरीरको छोड़कर आत्मा अन्य स्थूल शरीरको धारण करता है। यही परलोक कहलाता है। मैं यह पहिले विस्तारसे बता आया हूँ कि आत्मा अपने पूर्वशरीरके साथ ही साथ उस पर्यायम उपार्जित किये गए ज्ञान विज्ञान शक्ति आदिको वहीं छोड़ देता है, मात्र कुछ सूक्ष्म संस्कारों के साथ परलोकमें प्रवेश करता है। जिस योनिमें जाता है वहाँके वातावरणके अनुसार विकसित होकर बढ़ता है। अब यह विचारनेकी बात है कि मनुष्यके लिए मरकर उपन्न होनेके दो स्थान तो ऐसे हैं जिन्हें मनुष्य इसी जन्ममें सुधार सकता है, अर्थात् मनुष्य योनि और पशु योनि इन दो जन्मस्थानोंके संस्कार और वातावरणको सुधारना तो मनुष्यके हाथमें है ही। अपने स्वार्थकी दृष्टिसे भी आधे परलोकका सुधारना हमारी रचनात्मक प्रवृत्तिकी मर्यादामें है । बीज कितना ही परिपुष्ट क्यों न हो यदि खेत ऊबड़ खाबड़ है, उसमें कास आदि हैं, सांप चूहे छछंदर आदि रहते हैं तो उस बीजकी आधी अच्छाई तो खेतकी खराबी और गन्दे वातावरणसे समाप्त हो जाता है। अतः जिसप्रकार चतुर किसान बीजकी उत्तमताको चिन्ता करता है उसी प्रकार खेतको जोतने बखरने,उसे जीवजन्तुरहित करने, घास फूस उखाड़ने आदिकी भी पूरी पूरी कोशिश करता ही है, तभी उसकी खेती समृद्ध और आशातीत फलप्रसू होती है। इसी तरह हमें भी अपने परलोकके मनुष्यसमाज और पशुसमाज रूप दो खेतोंको इस योग्य बना लेना चाहिए कि कदाचित् इनमें पुनः शरीर धारण करना पड़ा तो अनुकूल सामग्री और सुन्दर वातावरण तो मिल जाय । यदि प्रत्येक मनुष्यको यह दृढ़ प्रतीति हो जाय कि हमारा परलोक यही मनुष्य समाज है और परलोक सुधारनेका अर्थ इसी मानव समाजको सुधारना है तो इस मानवसमाजका नकशा ही बदल जाय। इसी तरह पशुसमाजके प्रति भी सद्भावना उत्पन्न हो सकती है और उनके खानेपीने रहने आदिका समुचित प्रबन्ध हो सकता है। अमेरिकाकी गाएँ रेडियो सुनती है और सिनेमा देखती है। वहाँकी गोशालाएँ यहाँके मानवघोंसलोंसे अधिक स्वच्छ और व्यवस्थित हैं।
परलोक' अर्थात् दूसरेलोग, परलोकका सुधार अर्थात् दूसरे लोगोंका-मानवसमाजका सुधार । जब यह निश्चित है कि मरकर इन्हीं पशुओं और मनुष्योंमें भी जन्म लेनेकी संभावना है तो समझदारी
और सम्यग्दर्शनकी बात तो यह है कि इस मानव और पशु समाजमें आए हुए दोषोंको निकालकर इन्हें निर्दोष बनाया जाय। यदि मनुष्य अपने कुकृत्योंसे मानवजातिमें क्षय, सुजाक, कोढ़, मृगी आदि रोगोंकी सृष्टि करता है, इसे नीतिभ्रष्ट, आचारविहीन, कलह केन्द्र, और शराबखोर आदि बना देता है तो वह कैसे अपने मानव परलोकको सुखी कर सकेगा। आखिर उसे भी इसी नरकभूत समाजमें जन्म लेना पड़ेगा। इसी तरह गाय भैस आदि पशुओंकी दशा यदि मात्र मनुष्यके ऐहिक स्वार्थक ही आधारपर चली तो
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