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निश्चय और व्यवहारका सम्यग्दर्शन स्वरूपके दर्शन उसमें कैसे किए जा सकते हैं ?' यह शंका व्यवहार्य है, और इसका समाधान भी सीधा
और स्पष्ट है कि-प्रत्येक आत्मामें सिद्ध के समान अनन्त चैतन्य है, एक भी अविभाग प्रतिच्छेदकी न्यनता किसी आत्माके चैतन्यमें नहीं है। सबकी आत्मा असंख्यातप्रदेशवाली है, अखण्ड द्रव्य है। मूल द्रव्यदृष्टिसे सभी आत्माओंकी स्थिति एकप्रकारकी है। विभाव परिणमनके कारण गुणोंके विकासमें न्यूनाधिकता आ गई है। संसारी आत्माएँ विभाव पर्यायोंको धारण कर नानारूपमें परिणत हो रही हैं। इस परिणमनमें मल द्रव्यकी स्थिति जितनी सत्य और भूतार्थ है उतनी ही उसकी विभावपरिणतिरूप व्यवहार स्थिति भी सत्य और भूतार्थ है । पदार्थपरिणमनकी दृष्टिसे निश्चय और व्यवहार दोनों भूतार्थ और सत्य हैं । निश्चय जहाँ मूल द्रव्यस्वभावको विषय करता है, वहाँ व्यवहार परसापेक्ष पर्यायको विषय करता है, निविषय कोई नहीं है । व्यवहारकी अभूतार्थता इतनी ही है कि वह जिन विभाव पर्यायोंको विषय करता है वे विभाव पर्याएँ हेय हैं, उपादेय नहीं, शुद्ध द्रव्यस्वरूप उपादेय है, यही निश्चयकी भूतार्थता है। जिस प्रकार निश्चय द्रव्यके मूल स्वभावको विषय करता है उसी प्रकार शुद्ध सिद्ध पर्याय भी निश्चय का विषय है। तात्पर्य यह कि परनिरपेक्ष द्रव्य स्वरूप और परनिरपेक्ष पर्याएँ निश्चयका विषय हैं और परसापेक्ष परिणमन व्यवहारके विषय हैं। व्यवहारकी अभूतार्थता वहाँ है जहाँ आत्मा कहता है कि “मैं राजा हूँ, मैं विद्वान् हूँ, मैं स्वस्थ हूँ, मैं ऊंच हूँ, यह नीच है, मेरा धर्माधिकार है, इसका धर्माधिकार नहीं है आदि' तब अन्त दृष्टि कहता है कि राजा विद्वान् स्वस्थ ऊंच नीच आदि बाह्यापेक्ष होनेसे हेय हैं इन रूप तुम्हारा मूलस्वरूप नहीं है, वह तो सिद्धके समान शुद्ध है, उसमें न कोई राजा है न रंक, न कोई ऊंच न नीच, न कोई रूपवान् न कुरूपी। उसकी दृष्टिमें सब अखण्ड चैतन्यमय समस्वरूप समाधिकार हैं। इस व्यवहारमें अहंकार को उत्पन्न करनेका जो जहर है, भेद खड़ा करनेकी जो कुटेव है, निश्चय उसीको नष्ट करता है और बभेद अर्थात् समत्वकी ओर दृष्टिको ले जाता है और कहता है कि-मूर्ख, क्या सोच रहा है, जिसे तू नीच और तुच्छ समझ रहा है वहभी अनन्त चैतन्यका अखण्ड मौलिक द्रव्य है,परकृत भेदसे तू अहंकारकी सृष्टि कर रहा है और भेदका पोषण कर रहा है, शरीराश्रित ऊंचनीचभावकी कल्पनासे धर्माधिकार जैसे भीषण अहंकारकी बात बोलता है ? इस अनन्त विभिन्नतामय अहंकारपूर्ण व्यवहारसंसारमें निश्चय ही एक अमृतशलाका है जो दृष्टिमें व्यवहारका भेदविष नहीं चढ़ने देती।
पर ये निश्चयकी चरचा करने वाले ही जीवनमें अनन्त भेदोंको कायम रखना चाहते हैं। व्यवहारलोपका भय पग पगपर दिखाते हैं। यदि दस्सा मंदिरमें आकर पूजा कर लेता है तो इन्हें व्यवहारलोपका भय व्याप्त हो जाता है । भाई, व्यवहारका विष दूर करना ही तो निश्चयका कार्य है । जब निश्चयके प्रसारका अवसर आता है तो क्यों व्यवहारलोपसे डरते हो ? कबतक इस हेय व्यवहारसे चिपटे रहोगे
और धर्मके नामपर भी अहंकारका पोषण करते रहोगे ? अहंकारकेलिए और क्षेत्र पड़े हुए हैं, उन कुक्षेत्रोंमें तो अहंकार कर ही रहे हो ? बाह्य विभूतिके प्रदर्शनसे अन्य व्यवहारोंमें दूसरोंसे श्रेष्ठ वनने का अभिमान पुष्ट कर ही लेते हो, इस धर्मक्षेत्रको तो समताकी भूमि बनने दो। धर्मके क्षेत्रको तो धनके प्रभुत्वसे अछूता रहने दो । आखिर यह अहंकारकी विषबेल कहां तक फैलाओगे? आज विश्व इस अहंकारकी भीषण ज्वालाओंमें भस्मसात् हुआ जा रहा है । गोरे कालेका अहंकार, हिन्दू मुसलमानका अहंकार, धनी निर्धनका अहंकार, सत्ताका अहंकार ऊँचनीचका अहंकार,आदि छूत अछूतका अहंकार,आदिइस सहस्रजिह्वअहंकारनागकी नागदमनी औषधि निश्चयदृष्टि ही है । यह आत्ममात्रको समभूमिपर लाकर उसकी आंखे खोलती हैं कि--देखो, मूलमे तुम सब कहाँ भिन्न हो? और अन्तिम लक्ष्य भी तुम्हारा वही समस्वरूपस्थिति प्राप्त करना है तब क्यों बीचके पड़ावोंमें अहंकारका सार्जन करके उच्चत्वकी मिथ्या प्रतिष्ठाकेलिए एक दूसरेके खूनके प्यासे हो रहे हो ? धर्मका क्षेत्र तो कमसे कम ऐसा रहने दो जहां तुम्हें स्वयं अपनी मूलदशाका भान हो
और दूसरे भी उसी समदशाका भान कर सकें। “सम्मीलने नयनयोः न हि किचिदस्ति"-आंख मुंदजाने पर यह सब भेद तुम्हारे लिए कुछ नहीं है । परलोकमें तुम्हारे साथ वह अहंकारविष तो चला जायगा
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