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तत्त्वार्थवृत्ति-प्रस्तावना
पर यह जो भेदसृष्टि कर जाओगे उसका पाप मानवसमाजको भोगना पड़ेगा। यह मूढ़ मानव अपने पुराने पुरुषों द्वारा किये गये पापको भी बापके नामपर पोषता रहना चाहता है। अतः मानवसमाजकी हितकामनासे भी निश्चयदृष्टि-आत्मसमत्वकी दृष्टि को ग्रहण करो और पराश्रित व्यवहारको नष्ट करके स्वयं शान्तिलाभ करो और दूसरोंको उसका मार्ग निष्कंटक कर दो।
समयसारका सार यही है । कुन्दकुन्दकी आत्मा समयसारके गुणगानसे, उसके ऊपर अर्घ चढ़ानेसे, उसे चांदी सोने में मढ़ानेसे सन्तुष्ट नहीं हो सकती। वह तो समयसारको जीवनमें उतारनेसे ही प्रसन्न हो सकती है। यह जातिगत ऊँचनीच भाव, यह धर्मस्थानोंमें किसीका अधिकार किसीका अनधिकार इन सब विषोंका समयसारके अमतके साथ क्या मेल ? यह निश्चयमिथ्यात्वी निश्चयको उपादेय और भतार्थ तो कहेगा पर जीवन में निश्चयकी उपेक्षाके ही कार्य करेगा, उसकी जड़ खोदने का ही प्रयास करेगा।
निश्चयनयका वर्णन तो कागजपर लिखकर सामने टांग लो। जिससे सदा तुम्हें अपने ध्येयका भान रहे । सच पूछो तो भगवान् जिनेन्द्रकी प्रतिमा उसी निश्चयनयकी प्रतिकृति है। जो निपट वीतराग होकर हमें आत्ममात्रसत्यता सर्वात्मसमत्व और परमवीतरागताका पावन सन्देश देती है । पर व्यवहारमूढ़मानव उसका मात्र अभिषेक कर बाह्यपूजा करके ही कर्त्तव्यकी इतिश्री समझ लेता है । उलटे अपने में मिथ्या धर्मात्मत्वके अहंकारका पोषण कर मंदिरमें भी चौका लगानेका दृष्प्रयत्न करता है । 'अमुक मन्दिर में आ सकता है अमुक नहीं' इन विधिनिषेधोंकी कल्पित अहंकारपोषक दीवारें खड़ी करके धर्म, शास्त्र
और परम्पराके नामपर तथा संस्कृतिरक्षाके नामपर सिरफुडौवल और मुकदमेबाजीकी स्थिति उत्पन्न की जाती है और इस तरह रौद्रानन्दी रूपका नग्न प्रदर्शन इन धर्मस्थानोंमें आये दिन होता रहता है।
निश्चयनयावलम्बियोंकी एक मोटी भ्रान्त धारणा यह है कि ये द्रव्यमें अशुद्धि न मानकर पर्यायको अशुद्ध कहते हैं और द्रव्यको सदा शुद्ध कहने का साहस करते हैं। जब जैनसिद्धान्तमें द्रव्य और पर्यायकी पृथक् सत्ता ही नहीं है तब केवल पर्याय ही अशुद्ध कैसे हो सकती है ? जब इन दोनोंका तादात्म्य है तब दोनों ही अशुद्ध हैं। दूसरे शब्दोंमें द्रव्य ही पर्याय बनता है । द्रव्यशून्य पर्याय और पर्यायशून्य द्रव्य हो ही नहीं सकता। जब इस तरह दोनों एकसत्ताक ही हैं तब अशुद्धि पर्याय तक सीमित रहती है द्रव्यमें नहीं पहुँचती यह कथन स्वतः निःसार हो जाता है। पर्यायके परिवर्तन होनेपर द्रव्य किसी अपरिवर्तित अंशका नाम नहीं है और न ऐसा अपरिवर्तिष्णु कोई अंश ही द्रव्यमें है जो परिवर्तनसे सर्वथा अछूता रहता हो किन्तु द्रव्य अखण्डका अखण्ड परिवर्तित होकर पर्याय नाम पाता है। उसकी परिवर्तित धारा अनाद्यनन्तकाल तक चालू रहती है, इसीको द्रव्य या ध्रौव्य कहते है। अतः 'पर्याय अशुद्ध होती है और द्रव्य शुद्ध बना रहता है' यह धारणा द्रव्यस्वरूप के अज्ञानका परिणाम है ।
इसी धारणावश निश्चयमूढ़ में सिद्ध हूँ, निविकार हूँ, कर्मबन्धनमुक्त हूँ' आदि वर्तमानकालीन प्रयोग करने लगते हैं । और उसका समर्थन उपर्युक्त भ्रान्तधारणाके कारण करने लगते हैं। पर कोई भी समझदार आजकी नितान्त अशुद्ध दशामें अपनेको शुद्ध माननेका भान्त साहस भी नहीं कर सकता। यह कहना तो उचित है कि मुझमें सिद्ध होनेकी योग्यता है, मैं सिद्ध हो सकता हूँ, या सिद्धका मूल द्रव्य जितने प्रदेशवाला जितने गुणधर्मवाला है उतने ही प्रदेशवाला उतने ही गुणधर्मवाला मेरा भी है। अन्तर इतना ही है कि सिद्ध के सब गुण निरावरण हैं और मेरे सावरण । इस तरह शक्ति प्रदेश और अविभाग प्रतिच्छेदोंकी दृष्टिसे समत्व कह्ना जुदी बात है। वह समानता तो सिद्धके समान निगादियासे भी है । पर इससे मात्र द्रव्योंकी मौलिक एकजातीयताका निरूपण होता है न कि वर्तमान कालीन पर्यायका । वर्तमान पर्यायोंमें तो अन्तरं महदन्तरम् है।
इसीतरह निश्चयनय केवल द्रव्यको विषय करता है यह धारणा भी मिथ्या है । वह तो पर निरपेक्ष स्वभावको विषय करनेवाला है चाहे वह द्रव्य हो या पर्याय । सिद्ध पर्याय परनिरपेक्ष स्वभावभूत है, उसे निश्चयनय अवश्य विषय करेगा । जिस प्रकार द्रव्यके मूलस्वरूपपरदष्टि रखनेसे आत्मस्वरूपकी प्रेरणा
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