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तत्त्वार्थवृत्ति-प्रस्तावना उनका कोई सुधार नहीं हो सकता। उनके प्रति सद्भाव हो। यह समझें कि कदाचित् हमें इस योनिमें जन्म लेना पड़ा तो यही भोग हमें भोगना पड़ेंगे । जो परम्पराएँ हम इनमें डाल रहे हैं उन्हींके चक्रमें हमें भी पिसना पड़ेगा। जैसा करोगे वैसा भरोगे, इसका वास्तविक अर्थ यही है कि यदि अपने कुकृत्योंसे इस मानव समाज और पशु समाजको कलंकित करोगे तो परलोकमें कदाचित् इन्हीं समाजोंमें आना पड़ा. तो उन अपने कुकृत्यों का भोग भोगना ही पड़ेगा।
मानव समाजका सुख दुःख तत्कालीन समाज व्यवस्थाका परिणाम है। अत: परलोकका सम्यग्दर्शन यही है कि जिस आधे परलोकका सुधार हमारे हाथ में है उसका सुधार ऐसी सर्वोदयकारिणी व्यवस्था करके करें जिससे स्वर्ग में उत्पन्न होनेकी इच्छा ही न हो । यही मानवलोक स्वर्गलोकसे भी अधिक सर्वाभ्युदय कारक बन जाय। हमारे जीवनके असदाचार असंयम कुटेव बीमारी आदि सीधे हमारे वीर्यकणको प्रभावित करते हैं और उससे जन्म लेनेवाली सन्ततिके द्वारा मानवसमाजमें वे सब बीमारियाँ और चरित्र भ्रष्टताएँ फैल जाती है। अतः इनसे परलोक बिगड़ता है । इसका तात्पर्य यही है कि खोटे संस्कार सन्तति द्वारा उस मानवजातिमें घर कर लेते हैं जो मानवजाति कभी हमारा पुनः परलोक बन सकती है । हमारे कुकृत्योंसे नरक बना हुआ यही मानवसमाज हमारे पुनर्जन्मका स्थान हो सकता है । यदि हमारा जीवन मानवसमाज और पशुजातिके सुधार और उद्धारमें लग जाता है तो नरकमें जन्मलेनेका मौका ही नहीं आ सकता । कदाचित नरकमें पहँच भी गए तो अपने पूर्व संस्कारवश नारकियोंको भी सुधारनेका प्रयत्न किया जा सकता है । तात्पर्य यह कि हमारा परलोक यही हमसे भिन्न अखिल मनुष्य समाज और पशुजाति हैं जिनका सुधार हमारे परलोकका आधा सुधार है।
दूसरा परलोक है हमारी सन्तति। हमारे इस शरीरसे होनेवाले यावत् सत्कर्म और दुष्कर्मों के रक्तद्वारा जीवित संस्कार हमारी सन्ततिमें आते हैं। यदि हममें कोढ़ क्षय या सुजाक जैसी संक्रामक बीमारियाँ है तो इसका फल हमारी सन्ततिको भोगना पड़ेगा। असदाचार और शराबखोरी आदिसे होनेवाले पापसंस्कार रक्तद्वारा हमारी सन्ततिमें अंकुरित होंगे तथा बालकके जन्म लेने के बाद वे पल्लवित पुष्पिन और फलित होकर मानवजातिको नरक बनाएँगे। अत: परलोकको सुधारनेका अर्थ है सन्ततिको सुधारना और सन्ततिको सुधारने का अर्थ है अपनेको सुधारना । जबतक हमारी इस प्रकारकी अन्तर्मुखी दृष्टि न होगी तबतक हम मानवजातिके भावी प्रतिनिधियोंके जीवनमें उन असंख्य काली रेखाओंको अंकित करते जाँयगें जो सीधे हमारे असंयम ओर पापाचारका फल हैं ।
एक परलोक है-शिष्य परम्परा । जिस प्रकार मनुष्यका पुनर्जन्म रक्तद्वारा अपनी सन्ततिमें होता है उसी तरह विचारों द्वारा मनुष्यका पुनर्जन्म अपने शिष्योंमें या आसपासके लोगोंमें होता है । हमारे जैसे आचार-विचार होंगे, स्वभावतः शिष्योंके जीवनमें उनका असर होगा ही। मनुष्य इतना सामाजिक प्राणी है कि बह जान या अनजानमें अपने आसपासके लोगोंको अवश्य ही प्रभावित करता है। बापको बीड़ी पीता देखकर छोटे बच्चोंको झूठे ही लकड़ीकी बीड़ी पीनेका शौक होता है और यह खेल आगे जाकर व्यसन का रूप ले लेता है। शिष्यपरिवार मोमका पिंड है। उसे जैसे सांचे में ढाला जायगा ढल जायगा। अतः मनुष्यके ऊपर अपने सुधार-बिगाड़की जबाबदारी तो है ही साथ ही साथ मानव समाजके उत्थान और पतनमें भी उसका साक्षात् और परम्परया खास हाथ है। रक्तजन्य सन्तति तो अपने पुरुषार्थद्वारा कदाचित् पितृजन्य कुसंस्कारोंसे मुक्त भी हो सकती है पर यह विचारसन्तति यदि जहरीली विचारधारासे बेहोश हुई तो इसे होशमें लाना बड़ा दुष्कर कार्य है। आजका प्रत्येक व्यक्ति इस नूतनपीढ़ी पर ही आंख गड़ाए हुए है। कोई उसे मजह.बकी शराब पिलाना चाहता है तो कोई हिन्दुत्व की तो कोई जातिकी तो कोई अपनी कुल परम्परा की । न जाने कितने प्रकारकी विचारधाराओंकी रंग बिरंगी शराबें मनुष्यकी दुर्बुद्धिने तैयार की हैं और अपने वर्गका उच्चत्व, स्वसत्ता स्थायित्व और स्थिर स्वार्थोकी संरक्षाके लिए विविध प्रकारके धार्मिक सांस्कृतिक सामाजिक और राष्ट्रीय आदि सुन्दर मोहक पात्रोंमें ढाल ढालकर भोली नूतन पीढ़ीको पिलाकर उन्हें
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