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अध्यात्म और नियतिवादका सम्यग्दर्शन
योग्यता विकसित नहीं होती,तो कार्य नहीं हो सकेगा। एक ही निमित्तभूत अध्यापकसे एक छात्र प्रथम श्रेणीका विकास करता है जबकि दूसरा द्वितीय श्रेणीका और तीसरा अज्ञानीका अज्ञानी बना रहता है। अतः अन्ततः कार्य अन्तिमक्षणवर्ती उपादानयोग्यतासे ही होता है हाँ निमित्त उस योग्यताको विकासोन्मुख बनाते हैं। ऐशी दशामें अध्यात्मशास्त्रका कहना है कि निमित्तको यह अहंकार नहीं होना चाहिए कि हमने उसे ऐसा बना दिया। निमित्तकारणको सोचना चाहिए कि-इसकी उपादानयोग्यता न होती तो मैं क्या कर सकता था। अतः अपनेमें कर्तृत्वजन्य अहंकारकी निवृत्ति के लिए उपादानमें कर्तृत्वकी भावनाको दृढमूल करना चाहिए, ताकि परपदार्थ के कर्तृत्वका अहंकार हमारे चित्तमें आकर रागद्वेषको सृष्टि न करे। बड़ेसे बड़ा कार्य करके भी मनुष्यको यही सोचना चाहिए कि 'मैने क्या किया ? यह तो उसकी उपादानयोग्यता का ही विकास है, मैं तो एक साधारण निमित्त हूं।' 'क्रिया हि द्रव्यं विनयति नाद्रव्यम्' अर्थात्--क्रिया योग्यमें परिणमन कराती है अयोग्यमें नहीं। इस तरह अध्यात्मकी अकर्तृत्व भावना हमें वीतरागताकी ओर ले जानेके लिए है, न कि उसका उपयोग नियतिवादके पुरुषार्थविहीन कुमार्गपर ले जानेको किया जाय ।
'जं जस्स जम्मि आदि भावनाएं हैं-स्वामिकातिकेयानुप्रेक्षामें सम्यग्दृष्टिके धर्म भावनाके चिन्तनमें ये दो गाथाएँ लिखी हैं---
"जं जम्स जम्मि देसे जेण विहाणेण जम्मि कालम्मि । णादं जिणण णियदं जम्मं व अहव मरणं वा ।। ३२१॥ तं तस्स तम्मि देसे तेण विहाणेण तम्मि कालम्मि ।
को चालेदु सक्को इंदो वा अह जिणिदो वा ॥ ३२२ ॥" अर्थात् जिसका जिस समय जहाँ जैसे जन्म या मरण होना है उसे इन्द्र या जिनेन्द्र कोई भी नहीं टाल सकता, वह होगा ही। पं० दौलतरामजीन भी छहढालामें यही लिखा है--
"सुर असुर खगधिप जेते, मृग ज्यों हरि काल दलें ते।
मणिमन्त्र तन्त्र बहु होई, मरतें न बचावे कोई ॥" इस तरह मृत्यु भय से साधकको निर्भय होकर पुरुषार्थी बनने के लिए नियतत्वकी भावनाका उपदेश है न कि पुरुषार्थसे विमुख होकर नियतिचत्रके निष्क्रिय कुमार्गपर पहुँचने के लिए।
उक्त गाथाओंका भावनीयार्थ यही है कि-जो जव होना है होगा उसमें कोई किसीका शरण नहीं है, आत्मनिर्भर रहकर जो आवे उसे सहना चाहिए। मृत्युको कोई नहीं टाल सका। इस तरह चित्तसमाधानके लिए भाई जानेवाली भावनाओंसे वस्तुव्यवस्था नहीं हो सकती। अनित्य भावनामें ही कहते हैं कि--'जगत स्वप्नवत् है.' पर इसका यह अर्थ कदापि नहीं कि शून्यवादियोंकी तरह जगत् पदार्थोकी सत्तासे शुन्य है। बल्कि उसका यही तात्पर्य है कि स्वप्नकी तरह वह आत्महितके लिए वास्तविक कार्यकारी नहीं है। यहाँ सम्यग्दृष्टिकी चिन्तन-भावनामें स्वावलम्बनका उपदेश है, उससे पदार्थव्यवस्था नहीं की जा सकती।
निश्चय और व्यवहार--निश्चयनय वस्तुकी परनिरपेक्ष स्वभूत दशाका वर्णन करता है। वह यह बताता है कि प्रत्येक जीव स्वभावसे अनन्तज्ञान-दर्शन या अखण्ड चैतन्यका पिण्ड है। आज यद्यपि वह कर्मनिमित्तसे विभाव परणमन कर रहा है पर उसमें स्वभावभूत शक्ति अपने अखण्ड निर्विकार चैतन्य होनेकी है। व्यवहारनय परसाक्षेप अवस्थाओंका वर्णन करता है। वह जहाँ आत्माको परघटपटादि पदार्थोंके कर्तत्वके वर्णनसम्बन्धी लम्बी उड़ान लेता है वहाँ निश्चयनय रागादि भावोंके कत. . त्वको भी आत्मकोटिसे बाहर निकाल देता है और आत्माको अपने शुद्ध भावोंका ही कर्ता बताता है. अशुद्ध भावोंका नहीं। निश्चयनयकी भूतार्थताका तापर्य यह है कि वही दशा आत्माके लिए वास्तविक उपादेय है, परमार्थ है। यह जो रागादिरूप विभावपरिणति है वह अभूतार्थ है अर्थात् आत्माके लिए उपादेय नहीं है, इसके लिए वह अपरमार्थ है, अग्राह्य है।
___ निश्चयनयका वर्णन हमारा लक्ष्य है-निश्चयनय जो वर्णन करता है कि मैं सिद्ध हूँ, बुद्ध हूँ, निर्विकार हूँ, निष्कषाय हूँ, यह सब हमारा लक्ष्य है। इसमें हूँ' के स्थानमें 'हो सकता हूँ' यह प्रयोग भ्रम उत्पन्न नहीं
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