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अध्यात्म और नियतिवादका सम्यग्दर्शन रागादिका पुद्गलत्व-अध्यात्म शास्त्रमें रागादिको परभाव और पौद्गलिक बताया है । इसका कारण भी यह बताया गया है कि चूंकि ये भाव पुद्गलनिमित्तसे होते हैं अतः पुद्गलावलम्बन होनेसे पौद्गलिक हैं। सर्वार्थसिद्धिमें भावमनको इसीलिए पौद्गलिक बताया है कि वह पुद्गलनिमित्तक या पुद्गलावलम्बन है। रागादि या भावमनमें उपादान तो आत्मा ही है, आमा ही का परिणमन रागादि रूपसे होता है। यहाँ स्पष्टतः पुद्गलका या पर द्रव्य का सबलनिमित्तत्व स्वीकृत है। पर को निमित्त हुए विना रागादिको परभाव कैसे कहा जा सकता है ? अत: अध्यात्मभी उभयकारणोंसे कार्य होता है इस सर्वसम्मत कार्यकारणभावका निषेध नहीं करता। "सामग्री जनिका कार्यस्य नैकं कारणम्' अर्थात् सामग्रीसे कार्य होता है एक कारणसे नहीं, यह अनुभवसिद्ध कार्यकारणव्यवस्था है। कार्य उभयजन्य होनेपर भी च कि अध्यात्म उपादानका सुधार करना चाहता है अत: उपादानपर ही दष्टि रखता है
॥ है, और वह प्रति समय अपने मूलस्वरूप की याद दिलाता रहता है कि तेरा वास्तविक स्वरूप तो शुद्ध है, यह रागादिकुभाव परनिमित्त से उत्पन्न होते हैं अतः परनिमित्तोंको छोड़ । इसीमें अनन्त पुरुषार्थ है न कि नियतिवादकी निष्क्रियतामें।
उभय कारणोंसे कार्य-कार्योत्पत्तिके लिए दोनों ही कारण चाहिए उपादान और निमित्त; जैसा कि अनेकान्तदर्शी स्वामी समन्तभद्रने कहा है कि “यथा कार्य बहिरन्तरुपाधिभिः” अर्थात् कार्य बाह्य-अभ्या न्तर दोनों कारणोंसे होता है। वे बृहत्स्वयंभू स्तोत्रके वासुपूज्य स्तवनमें और भी स्पष्ट लिखते हैं कि---
"यद्वस्तु बाह्यं गुणदोषसूतेनिमित्तमभ्यन्तरमूलहेतोः।
अध्यात्मवृत्तस्य तदंगभूतमभ्यन्तरं केवलमप्यलं न ॥" अर्थात् अन्तरंगमें विद्यमान मूलकारण अर्थात् उपादान योग्यताके गुण और दोषको प्रकट करनेमें जो बाह्य वस्तु कारण होती है वह उस उपादानके लिये अंगभूत अर्थात् सहकारी कारण है। केवल अभ्यन्तर कारण अपने गुणदोषकी उत्पत्तिमें समर्थ नहीं है । भले ही अध्यात्मवृत्त पुरुषके लिए बाह्यनिमित्त गौण हो जाँय पर उनका अभाव नहीं हो सकता । वे अन्तमें उपसंहार करते हुए और भी स्पष्ट लिखते हैं
'बाहयेतरोपाधिसमग्रतेयं कार्येषु ते द्रव्यगतः स्वभावः ।
नैवान्यथा मोक्षविधिश्च तेनाभिवन्यस्त्वमषिर्बुधानाम् ।।" अर्थात् कार्योत्पत्तिके लिए बाह्य और आभ्यन्तर, निमित्त और उपादान दोनों कारणोंकी समग्रता पूर्णता ही द्रव्यगत निजस्वभाव है। इसके बिना मोक्ष नहीं हो सकता।
इस उभयकाणोंकी स्पष्ट घोषणाके रहते हए भी केवल नियतिवादकान्तका पोषण 'अनेकान्त दर्शन और अनन्त पुरुषार्थका रूप नहीं ले सकता।
. यही अनाद्यनन्त वैज्ञानिक कारण-कार्यधारा ही द्रव्य है जिसमें पूर्वपर्याय अपनी सामग्रीके अनुसार सदृश, विसदृश, अर्धसदृश, अल्पसदृश आदिरूपसे अनेक पर्यायोंकी उत्पादक होती है। मान लीजिए एक जलबिन्द है उसकी पर्याय बदल रही है, वह प्रतिक्षण जलबिन्दु रूपसे परिणमन कर रही है पर यदि गरमीका निमित्त मिलता है तो तुरन्त भाप बन जाती है। किसी मिट्टी में यदि पड़ गई तो सम्भव है पृथिवी बन जाय। यदि साँपके मुहमें चली गई तो जहर बन जायगी। तात्पर्य यह कि एकधारा पूर्व-उत्तर पर्यायों की बहती है उसमें जैसे जैसे संयोग होते जाँयगे उसका उस जातिमें परिणमन हो जायगा। गंगाकी धारा हरिद्वारमें जो है वह कानपुरमें नहीं । वह और कानपुरकी गटर आदिका संयोग पाकर इलाहाबादमें बदली और इलाहाबादकी गन्दगी आदिके कारण काशीकी गंगा जुदी ही हो जाती है। यहाँ यह कहना कि “गंगाके जलके प्रत्येक परमाणुका प्रतिसमयका सुनिश्चित कार्यक्रम बना हुआ है उसका जिस समय जो परिणमन होना है वह होकर ही रहेगा" द्रव्यकी विज्ञानसम्मत कार्यकारणपरम्पराके प्रतिकूल है।
समयसारमें निमित्ताधीन उपादान परिणमन-समयसार (गा० ८६।८८) में जीव और कर्मका परस्पर निमित्तनैमित्तिक सम्बन्ध बताते हुए लिखा है कि--
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