Book Title: Sthananga Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
View full book text
________________
स्थान १ उद्देशक १
१७
उसे मानना अभूतोद्भावन नामक मृषावाद है। जैसे यह कहना कि - "आत्मा सर्व व्यापी है, ईश्वर जगत् का कर्ता है आदि।
२. भूत निह्नव - सद्भाव प्रतिबंध-विद्यमान वस्तु का निषेध करना भूत निह्नव मृषावाद है। जैसे कि - यह कहना कि "आत्मा नहीं है - पुण्य, पाप, स्वर्ग, नरक, आदि नहीं हैं।" .. ३. वस्त्वन्तरन्यास - एक पदार्थ को दूसरा पदार्थ बताना - गो, बैल होते हुए भी यह घोड़ा है ऐसा कहना।
४. निन्दावचन - निन्दा युक्त वचन बोलना। जैसे - तू कोढिया (कुष्ठी) है, काना है, अन्धा है इस प्रकार कहना।
३. अदत्तादान - अदत्त यानी बिना आज्ञा के आदान यानी ग्रहण करना अदत्तादान है अर्थात् स्वामी (मालिक) जीव, तीर्थंकर और गुरु आदि की बिना आज्ञा के सचित्त, अचित्त और मिश्र भेद वाली वस्तुओं को ग्रहण करना अदत्तादान है। ... ४. मैथुन - स्त्री, पुरुष युगल का कार्य मैथुन - अब्रह्मचर्य है जो मन, वचन काया संबंधी करना कराना और अनुमोदन रूप नौ भेदों से औदारिक और वैक्रिय शरीर की अपेक्षा १८ प्रकार का कहा है। फिर भी सामान्य से मैथुन एक है।
५. परिग्रह - परिगृह्यते - जो स्वीकार किया जाता है वह परिग्रह है। अथवा परिग्रहणं - सर्वथा ग्रहण करना परिग्रह है। मूर्छा को भी परिग्रह कहा गया है। परिग्रह के बाह्य और आभ्यन्तर दो भेद हैं। बाह्य परिग्रह के ९ भेद होते हैं - १. खेत्त - खुली जमीन २. वत्थु (वास्तु) - ढकी जमीन मकान घर आदि ३. हिरण्य - चांदी ४. सुवर्ण - सोना ५. धन - रूपया पैसा आदि ६. धान्य - गेहूँ, जौ आदि २४ प्रकार का धान ७. द्विपद - दौ पेर वाले - दास, नौकर आदि ८. चतुष्पद - चार पैर वाले - गाय, बैल भैंस घोड़ा आदि ९. कुविय (कुप्य) - घर बिखरी का सामान-कुर्सी, पलंग सिरक पथरना आदि । . आभ्यन्तर परिग्रह के १४ भेद हैं यथा - १. क्रोध २. मान ३. माया ४. लोभ ५. मिथ्यात्व ६. हास्य ७. रति ८. अरति ९. भय १०. शोक ११. जुगुप्सा १२. स्त्रीवेद. ३. पुरुष वेद १४. नपुंसक वेद।
६. क्रोध - मोहनीय कर्म के उदय से होने वाला कृत्य (कार्य) अकृत्य (अकार्य) के विवेक को हटाने वाला प्रज्वलन रूप आत्मा के परिणाम. को क्रोध कहते हैं।
७. मान - मोहनीय कर्म के उदय से जाति आदि गुणों में अहंकार-बुद्धि रूप आत्मा के परिणाम को मान कहते हैं। .. ८. माया - मोहनीय कर्म के उदय से मन, वचन, काया की कुटिलता द्वारा परवञ्चना अर्थात् दूसरे के साथ ठगाई, कपटाई दगा रूप आत्मा के परिणाम विशेष को माया कहते हैं
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org