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श्रीस्थानाङ्गसूत्र सानुवाद ॥१७॥
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कधु ते कहेवाय छे. तेमां सर्व पदार्थोने जाणवा माटे सम्यग् मिथ्याज्ञान, श्रद्धा अने क्रियाद्वारा उपयोग जोडवाथी आत्मानु१ स्थानासर्व पदार्थमा प्रधानपणुं छे. आ हेतुथी सूत्रकार प्रथम आत्मानो विचार कहे छे.
ध्ययने एगे आया । सू० २
एकानेकामूलार्थः-आत्मा एक छे (मू०२)
त्मासिद्धिः टीकार्थः-कोइक अपेक्षाए ( संग्रह नयनी अपेक्षाए) आत्मा एक छे, वे त्रण आदिरूप आत्मा नथी. तत्र अतति
२ सूत्रम्. सततमवगच्छति-अहिं 'अत' धातु सातत्य गमनना अर्थमा छ ए वचनथी 'अत' धातु गतिना अर्थवाळो छे अने गत्यर्थ धातुओ ज्ञानना अर्थवाला होय छे तेथी करीने "अनवरतं जानाति" जे निरंतर जाणे छे ते आत्मा (जीव), अहिं आत्मा शब्द निपातथी सिद्ध थयेल छे, केम के आत्मानुं लक्षण उपयोग छ तेथी अर्थात् सिद्ध संसारी एबे अवस्थामा पण उपयोगभाववडे निरंतर जाणवापणुं छे तेथी. तथा निरंतर बोधनो अभाव मानीए तो अजीवपणानो प्रसंग प्राप्त थाय अने अजीवपणुं थवाथी तेमां फरीथी जीवत्वनो अभाव छे अने फरीथी जीवत्वभाव स्वीकारवामां आकाशादिने पण जीवपणानो प्रसंग आवशे, अने एम मानवाथी जीवन अनादिपणुं स्वीकारखानो अभाव उद्भवशे ( अर्थात् जीवन अनादिपणुं नहि घटे) अथवा जे निरंतर पोताना ज्ञानादि पर्यायोने प्राप्त करे छे ते आत्मा. शंका-एम १. आत्माना विचारमा टोकाकार प्रथम व्युत्पत्त्यर्थ दशाव छे.
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