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श्रीस्थानाङ्गसूत्र
सानुवाद ।। १६ ।।
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पूर्व स्वभावना नहिं त्यागवामां शिष्यने उपदेशकत्व होय ? जो त्यागवामां कहेशो तो 'हंत' इति खेदे वस्तुनुं नित्यपणुं नाश थयुं, वस्तु, वस्तुना स्वभावथी भिन्न नथी. कारण के स्वभावनो क्षय थये छते वस्तुनो क्षय थाय छे. ए हेतुथी अपरित्याग पक्ष जो तमे कहेशो तो ते पण नहि घटे, कारण के युगपत् ( एक ज समये ) विरुद्ध वे स्वभावनो असंभव होय छे. जो ए नित्यपक्ष स्वीकारशी तो ते पण योग्य नथी, कारण के सर्वथा नाश पामते छते श्रोतानो श्रवणकालमा ज विनाश होवाथी अने कथनना समयमां बीजानी ज उत्पत्ति होवाथी कहेवानो प्रसंग नहि आवे. यज्ञदत्ते सांभळेल देवदत्तना न कहेवानी जेम. अहिं नयना मतवडे समाधान करे छे. ए हेतुथी नयद्वारनुं अवतरण करे छे-नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ अने एवंभूत ए सात नयो छे. तेमां पहला ऋण नयो, द्रव्य ए ज अर्थ छे एम कहेवावडे द्रव्यार्थिक नयमां अवतरे छे. बीजा चार नयो, पर्याय ए ज अर्थ छे एम कहेवावडे पर्यायार्थिक नयमां अवतरे छे. ते ज उभय मतनो आश्रय की छते द्रव्यार्थ - पणा वस्तु नित्य अने पर्यायार्थपणे तो वस्तु अनित्य छे; माटे ( स्याद्वादपक्षे ) नित्य - अनित्य वस्तु छे. आ हेतुथी गोळ अनेसूनी माफक प्रत्येक पक्षमां कहल दोपनो अभाव छे. एवी ज रीते सर्व व्यवहारनी प्रवृति थाय छे. कहें छे केसव्वं चिय पइसमयं, उप्पज्जइ नासए य निच्चं च । एवं चेव य सुहदुक्ख - बंधमोक्खादिसब्भावो॥३८॥
१. कारण ? सांभळनार यज्ञदत्तनो विनाश होवाथी ते कहो शके नहि, देवदत्त विद्यमान होवा छतां पण सांभळवाना अवसरे नहि होवाथी न सांभळेलुं केम कहो शके ?
२. गुडो हि कफहेतुस्स्यात्, नागरं पित्तकारणम् । उभयोर्न हि दोषस्या- तद्वयमौषधं भवेत् ॥ १ ॥
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१ स्थानाध्ययने
१ सूत्रम् .
॥ १६ ॥