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द्वार १२४-१२५
तथा संग्रह, व्यवहार, जुसूत्र और शब्द चार मूलनय हैं। प्रत्येक के सौ...सौ भेद होने से कुल भेद चार सौ हुए।
नयों के दो सौ भेद भी हैं। यथा-नैगम, संग्रह, व्यवहार और ऋजुसूत्र-ये चारों नय द्रव्यास्तिक हैं, शब्द, समभिरुढ़ व एवंभूत ये तीनों पर्यायास्तिक हैं। इन दोनों के सौ सौ भेद होने से कुल नय दो सौ हुए। अथवा जितने बोलने के तरीके हैं उतने ही नय हैं। इस प्रकार नयों की संख्या असंख्यात है ॥८४८ ॥
१२५ द्वारः |
वस्त्र-विधान
जन्न तयट्ठा कीयं नेव वुयं नेव गहियमन्नेसिं । आहड पामिच्चं चिय कप्पए साहुणो वत्थं ॥८४९ ॥ अंजणखंजणकद्दमलित्ते, मूसगभक्खियअग्गिविदड्डे। उन्निय कुट्टिय पज्जवलीढे, होइ विवागो सुह असुहो वा ॥८५० ॥ नवभागकए वत्थे चउरो कोणा य दुन्नि अंता य । दो कन्नावट्टीउ मज्झे वत्थस्स एक्कं तु ॥८५१॥ चत्तारि देवया भागा, दुवे भागा य माणुसा। आसुरा य दुवे भागा, एगो पुण जाण रक्खसो ॥८५२ ॥ देवेसु उत्तमो लाभो, माणुसेसु य मज्झिमो। आसुरेसु य गेलन्नं, मरणं जाण रक्खसे ॥८५३ ॥
-गाथार्थवस्त्रग्रहणविधान-जो वस्त्र साधु के लिये खरीदा हुआ, बुना हुआ, जबर्दस्ती दूसरे से छीना हुआ, सम्मुख लाया हुआ, उधार लाया हुआ न हो-ऐसा वस्त्र मुनि को ग्रहण करना कल्पता है ।।८४९ ।।
___अंजन, खंजन और कीचड़ से लिप्त, चूहे से काटे हुए, आग से जले हुए, तुने हुए, छेदवाले तथा सांधावाले वस्त्र का शुभाशुभ फल होता है। एक वस्त्र के चार कोने, दो किनारे, दोनों ओर की किनारी तथा मध्यभाग इस प्रकार नौ भाग होते हैं। चार देवभाग, दो मनुष्य सम्बन्धी भाग, दो आसुरी भाग और एक राक्षसी भाग होता है। वस्त्र में देवभाग उत्तमलाभ का, मानवभाग मध्यमलाभ का, आसुरीभाग रुग्णता का तथा राक्षसभाग मृत्यु का सूचक है ।।८५०-८५३ ।।
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