________________
उत्थान के लिए स्वयं अपने-अाप अपने पथ का निर्माण करते हैं। तीर्थकर का पथ-प्रदर्शन करने के लिए न कोई गुरु होता है, और न कोई शास्त्र । वह स्वयं ही अपना पथ-प्रदर्शक गुरु है, स्वयं ही उस पथ का यात्री है। वह अपना पथ स्वयं खोज निकालता है। स्वावलम्बन का यह महान् आदर्श, तीर्थंकरों के जीवन में कूट-कूट कर भरा होता है। तीर्थंकर देव पुरातन जीर्ण-शीर्ण हई अनुपयोगी अन्ध और व्यर्थ परम्परानों को छिन्न-भिन्न कर जन-हित के लिए नयी परम्पराएँ, नयी योजनाएँ स्थापित करते हैं। उनकी क्रान्ति का पथ स्वयं अपना होता है, वह कभी भी परमुखापेक्षी नहीं होते।
पुरुषोत्तम: ____ तीर्थंकर भगवान् पुरुषोत्तम होते हैं। पुरुषोत्तम, अर्थात् पुरुषों में उत्तम-श्रेष्ठ । भगवान् के क्या बाह्य और क्या प्राभ्यन्तर-दोनों ही प्रकार के गुण अलौकिक होते हैं, असाधारण होते हैं। भगवान् का रूप त्रिभुवन-मोहक होता है । और, उनका तेज सूर्य को भी हतप्रभ बना देने वाला है। भगवान् का मुखचन्द्र सुर-नर-नाग नयन-मनोहारी होता
और, उनके दिव्य शरीर में एक-से-एक उत्तम एक हजार आठ लक्षण होते हैं, जो हर किसी दर्शक को उनकी महत्ता की सूचना देते हैं। वज्रऋषभनाराच संहनन का बल' और समचतुरस्त्र संस्थान का सौन्दर्य तो अत्यन्त ही अनूठा होता है। भगवान के परमौदारिक शरीर के समक्ष देवताओं का दीप्तिमान वैक्रिय शरीर भी बहुत तुच्छ एवं नगण्य मालूम देता है। यह तो है बाह्य ऐश्वर्य की बात ! अब जरा अन्तरंग ऐश्वर्य की बात भी मालूम कर लीजिए। तीर्थंकर देव अनन्त चतुष्टय के धर्ता होते हैं। उनके अनन्त-ज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्त आनन्द, अनन्त शक्ति आदि गुणों की समता भला दूसरे साधारण देवपद-वाच्य कहाँ कर सकते हैं ? तीर्थकर देव के अपने युग मे कोई भी संसारी पुरुष उनके समकक्ष नहीं होता।
पुरुषसिंह :
तीर्थकर भगवान् पुरुषों में सिंह होते हैं। सिंह एक अज्ञानी पशु है, हिंसक जीव है। अतः कहाँ वह निर्दय एवं क्रूर पशु और कहाँ दया एवं क्षमा के अपूर्व भंडार भगवान् ? भगवान् को सिंह की उपमा देना, कुछ उचित नहीं मालूम देता ! किन्तु, यह मात्र एकदेशी उपमा है। यहाँ सिंह से अभिप्राय, सिंह की वीरता और पराक्रम मात्र से है। जिस प्रकार वन में पशुओं का राजा सिंह अपने बल और पराक्रम के कारण निर्भय रहता है, कोई भी पशु वीरता में उसकी बराबरी नहीं कर सकता, उसी प्रकार तीर्थंकर देव भी संसार में निर्भय रहते हैं, कोई भी संसारी व्यक्ति उनके आत्म-बल और तपस्त्याग सम्बन्धी वीरता की बराबरी नहीं कर सकता।
सिंह की उपमा देने का एक अभिप्राय और भी हो सकता है। वह यह कि संसार मे दो प्रकृति के मनुष्य होते हैं-एक कुत्ते की प्रकृति के और दूसरे सिंह की प्रकृति के। कुत्ते को जब कोई लाठी मारता है, तो वह लाठी को मुंह में पकड़ता है और समझता है कि लाठी मुझे मार रही है। वह लाठी मारने वाले को नहीं काटने दौड़ता, लाठी को काटने दौड़ता है। इसी प्रकार जब कोई शत्र किसी को सताता है, तो वह सताया जाने वाला व्यक्ति सोचता है कि यह मेरा शत्र है, यह मझे तंग करता है, मैं इसे क्यों न नष्ट कर दं? वह उस शव को शत्रु बनाने वाले अन्तर-मन के विकारों को नहीं देखता, उन्हें नष्ट करने की बात नहीं सोचता। इसके विपरीत, सिंह की प्रकृति लाठी पकड़ने की नहीं होती, प्रत्युत लाठी वाले को पकड़ने की होती है। संसार के वीतराग महापुरुष भी सिंह के समान अपने शत्रु को शत्रु नहीं समझते, प्रत्युत उनके मन में स्थित विकारों को ही शत्रु समझते हैं। वस्तुतः शत्रुता पैदा करने वाले मन के विकार ही तो हैं। अतः उनका आक्रमण व्यक्ति पर न होकर व्यक्ति के विकारों पर होता है। अपने दया, क्षमा प्रादि सद्गुणों के प्रभाव से दूसरों के
३६
पन्ना समिक्खए धम्म
Jain Education Intemational
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org