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प्रत्येक
इस धरती पर जो भी महापुरुष हुए हैं, जिन्होंने इस सत्य के सागर की गहराइयों का थाह पाया है, उन्होंने अवश्य इस पर विचार किया है। सत्य के इस मर्म को उभाड़ा है, जीवन की गहराई की परत उठाकर उसका वास्तविक दर्शन कराने का प्रयास किया है। धर्म का स्वरूप स्पष्ट करते हुए उन्होंने कहा है-'वत्युसहावो धम्मो।'
वस्तु (द्रव्य, पदार्थ) का जो मूल रूप है, अपना भाव है, वही तो वस्तु का धर्म है। प्रत्येक वस्तु का एक निश्चित रूप होता है, और वही उसका धर्म होता है। इस दष्टि से धर्म का अर्थ हुआ--वस्तु का अपना स्वभाव । आत्मा भी एक वस्तु है और संसार के समस्त पदार्थों में एक विशिष्ट शक्ति-संपन्न, चेतनाज है। तो फिर दूसरों से पूछने की अपेक्षा, अपने से ही पूछे कि मेरा धर्म क्या है ? इस संसार के चौराहे पर तेरे घूमने का क्या उद्देश्य है ? क्या तू आकाश, जल, अग्नि, मिट्टी और वायु-इन पंचभूतों का सम्मिश्रण मात्र है? अथवा अन्य कुछ है ? अात्मा को पहचानने वालों ने इस सम्बन्ध में अपना उत्तर दिया है कि-इन पंचभूतों के अस्थिपंजर, हाड़-मांस, रक्त और मज्जा से निर्मित शरीर से परे तू एक और सत्ता है, तू महान् है, विराट् है, संसार के समस्त पदार्थों में तेरा सर्वोपरि स्थान है।
आश्चर्य तो यह है कि अन्य जड़ वस्तुनों की भाँति यह आत्मा भी स्वयं अपना मूल्य नहीं समझ पा रहा है। मूल्य की दृष्टि से संसार में हीरे का मूल्य बहुत अाँका जाता है। कोहेनूर हीरे के बारे में कहा जाता है-वह महाभारत काल में धर्मराज युधिष्ठिर के पास था। तब से संसार के सम्राटों के पास घूम रहा है। उसका एक विशिष्ट मूल्य है। किन्तु, लाखों कोहेनूर हीरों का ढेर लगा कर उनसे पूछा जाए कि तुम्हारा क्या मूल्य है ? तो क्या वे बता सकेंगे? उन्हें स्वयं अपना कुछ पता नहीं है, क्योंकि वे जड़ हैं। यही दशा एक मिट्टी के ढेले की है। दोनों ही जड है। इस अर्थ में दोनों ही समान है। किन्त फिर कोहेनर का मूल्य पाया कहाँ से? उसका मूल्यांकन करने वाला कौन है ? कहना होगा--- उसको परखने की शक्ति इन्सान की आँखों में है। मान लीजिए, यदि कोहेनूर रास्ते में पड़ा हो और एक अन्धे के पैर में चुभे, तो क्या उसे ज्ञान हो सकेगा कि यह कोहेनूर है ? उसकी दृष्टि में तो वह कोई कंकर है, पत्थर का टुकड़ा मान्न है।
अन्तर् का शास्ता:
ऊपर की चर्चा से यह निष्कर्ष निकलता है कि कोहेनूर का मूल्य-निर्धारण स्वयं उसमें नहीं है, बल्कि इन्सान की आँख में है। एक प्रश्न फिर उठ सकता है, तो जब मूल्यनिर्धारण का मापदण्ड आँख ही हई और माँख जब स्वयं ही सीमाबद्ध है, तथा जो अपने
आपको ही नहीं देख सकती, वह दूसरे का मूल्यांकन कैसे करेगी? कोहेनर भी मौजूद है, अाँख भी मौजूद है, किन्तु आँख की खिड़की से झाँकने वाला चैतन्य यदि नहीं है, तो उसका क्या मूल्य ? आँख, कान आदि शरीर की प्रत्येक इन्द्रिय का, ज्ञात-अज्ञात प्रत्येक चेष्टा का, जो संचालक है, शास्ता है, यदि उसका अस्तित्व ही नहीं है, तो न आँख का मूल्य है और न कोहेनूर का ही। हमारी आँख, कान, नाक, जिह्वा आदि इन्द्रिय-शक्तियाँ तो उसी महाशास्ता से शासित हैं। यदि वह शास्ता नहीं रहता है, तो फिर सबका मूल्य शून्य हो जाता है। इसलिए आँख के प्रकाश से जो देखने वाला तत्व है, वही अन्दर का शास्ता है, सभी शक्तियों का अधिष्ठाता है। इसी पवित्र सत्ता, दिव्य शक्ति, एवं चेतनापुंज का जो साक्षात्कार है, वीतराग भाव की अनुभूति है, वही धर्म है। उसकी जो व्याख्या करे, वही शास्त्र है। हमारी साधना उसी अनन्त चैतन्य प्रकाश को खोजने की है, पाने की है। जो साधना ऐसा नहीं करती है, वह साधना कदापि नहीं है।
यहाँ पर एक प्रश्न और खड़ा हो जाता है कि जो स्वयं प्रकाश का स्रोत है, उसकी खोज हम क्यों करें ? कैसे करें? प्रश्न ठीक है, किन्तु यह भी तो आप न भूलें कि दिया. मलाई में अग्नि तत्त्व के बीज विद्यमान होते हुए भी प्रकाश के लिए उसे रगड़ना नहीं होता
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पन्ना समिक्खए धम्म
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