Book Title: Panna Sammikkhaye Dhammam Part 01
Author(s): Amarmuni
Publisher: Veerayatan

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Page 420
________________ जो लोग शहर में रह रहे हैं, वे सबसे पहले तो दावतें देना छोड़ दें । विवाह - शादी आदि के अवसरों पर जो दावतें दी जाती हैं, उनमें काफी अन्न वर्बाद होता है। बावत, अपने साथियों के प्रति प्रेम प्रदर्शित करने का एक तरीका है। जहाँ तक प्रेम-प्रदर्शन की भावना का प्रश्न है, मैं उस भावना का अनादर नहीं करता हूँ, किन्तु इस भावना को व्यक्त करने के तरीके देश और काल की स्थिति के अनुरूप ही होने चाहिए। भारत में दावतें किस स्थिति में आईं ? एक समय था जबकि यहाँ अन्न के भण्डार भरे थे । खुद खाएँ संसार को खिलाएँ, तो भी अन्न समाप्त होने वाला नहीं था । पाँच-पचास की दावत कर देना तो कोई बात ही नहीं थी! किन्तु आज वह हालत नहीं रही है। देश दाने-दाने के लिए मुंहताज है । ऐसी स्थिति में दावत देना देश के प्रति द्रोह है, एक राष्ट्रीय पाप है । एक ओर लोग भूख से तड़प-तड़प कर मर रहे हों और दूसरी ओर हलवा-पूड़ी, कचौरियाँ और मिठाइयाँ जबर्दस्ती गले में ठूसी जा रही हों— इसे आप क्या कहते हैं ? इसमें करुणा है ? दया है ? सहानुभूति है ? अजी, मनुष्यता भी है या नहीं ? यह तो विचार करो । मैंने सुना है, मारवाड़ में मनुहार बहुत होती है । थाली में पर्याप्त भोजन रख दिया हो, बाद में और अधिक लेने के लिए साग्रह यदि पूछा नहीं गया, तो जीमने वालों की त्योरियाँ चढ़ जाती हैं। मनुहार का मतलब ही यह है कि दबादब - दबादब थाली में डाले जाना और इतना डाले जाना कि खाया भी न जा सके, और व्यर्थ ही खाद्य-पदार्थ अधिकांश वर्बाद हो जाए! जूठन न छोड़ी गई, तो न खाने वाले की कुछ शान है, और न खिलाने वाले की । उत्तर प्रदेश के मेरठ और सहारनपुर जिलों से सूचना मिली है कि वहाँ के वैश्यों ने, जिनका ध्यान इस समस्या की ओर गया, बहुत बड़ी पंचायत जोड़ी है और यह निश्चय किया है कि विवाह में इक्कीस प्रादमियों से ज्यादा की व्यवस्था नहीं की जाएगी। उन्होंने स्वयं यह प्रण किया है और गाँव-गाँव में यही आवाज पहुँचा रहे हैं तथा इसके पालन कराने का प्रयत्न कर रहे हैं। क्या ऐसा करने से उनकी इज्जत वर्बाद हो जाएगी ? नहीं, उनकी इज्जत में चार चाँद और लग जाएँगे । आपकी तरह वे भी खूब अच्छा खिला सकते हैं और चोर बाजार से खरीद कर हजारों आदमियों को खिलाने की क्षमता रखते हैं । किन्तु उन्होंने सोचा, इस तरह तो हम मानव जीवन के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं । यह खिलवाड़ अमानुषिक है। हमें इसे जल्द-से-जल्द बन्द कर देना चाहिए । हाँ तो, सर्व प्रथम बात यह है-बड़ी-बड़ी दावतों का यह जो दुर्नाम सिलसिला चल रहा है, शीघ्र ही बन्द हो जाना चाहिए। विवाह शादी या धार्मिक उत्सवों के नाम पर, जो दावतें चल रही हैं, कोई भी विवेकशील आदमी उन्हें आदर की दृष्टि से देख नहीं सकता । यदि आप सच्चा प्रादर पाना चाहते हैं, तो आपको यह संकल्प कर लेना है--प्राज से हम अपने देश के हित में दावतें बन्द करते हैं । जब देश में अन्न की बहुतायत होगी, तो भले ही उत्सव मनाएँगे, खाएँगे और खिलाएँगे । दूसरी बात है, जूठन छोड़ने की । भारतवासी जब खाने बैठते हैं, तो वे खाने की मर्यादा का बिल्कुल ही विचार नहीं करते। पहले अधिक-से-अधिक लेते हैं और फिर जूठन छोड़ते हैं । किन्तु, भारत का कभी आदर्श था कि जूठन छोड़ना पाप है। जो कुछ लेना है, मर्यादा से लो, आवश्यकता से अधिक मत लो। और जो कुछ लिया है, उसे जूठा न छोड़ो। जो लोग जूठन छोड़ते हैं, वे अन्न का अपमान करते हैं । उपनिषद् का आदेश है - 'अन्नं न निन्द्यात ।' जो मन को ठुकराता है, अन्न का अपमान करता है, उसका भी अपमान अवश्यंभावी है । अन्न का इस प्रकार अपमान करने वाला भले ही कोई व्यक्ति हो, परिवार हो, समाज हो या राष्ट्र हो, एक दिन वह श्रवश्य ही तिरस्कृत होता है । एक वैदिक ऋषि ने महत्त्वपूर्ण उद्घोष किया है--"अन्नं वै प्राणाः ।" देश की विकट समस्या : भूल Jain Education International For Private & Personal Use Only ४०१ www.jainelibrary.org

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