Book Title: Panna Sammikkhaye Dhammam Part 01
Author(s): Amarmuni
Publisher: Veerayatan

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Page 441
________________ प्रारम्भ है । उसका क्षेत्र बहुत व्यापक और बहुत विशाल है । हमें व्यापक दृष्टिकोण लेकर आगे बढ़ना है । अपने मन की करुणा को आस-पास के समाज में बांटते चलो। जो सुखसाधन और उपलब्धियाँ आपके पास हैं, उन्हें समाज के कल्याण-मार्ग में लगाते चलो। समाज की सेवा में समर्पण का जो दृष्टिकोण है, वह एक व्यापक दृष्टिकोण है । व्यक्ति सामाजिक जीवन के दूर किनारों तक अपने वैयक्तिक जीवन की लहरों को फैलाता चलेगा, उन्हें समाज के साथ एकाकार करता चलेगा, वह जितना ही आगे बढ़ेगा, जितना ही अपने सुख को समाज के सुख के साथ जोड़ता चलेगा, उतना ही व्यापक बनता चला जाएगा । व्यक्ति भाव का क्षुद्र घेरा तोड़कर समाज भाव एवं विश्व-भाव के व्यापक क्षेत्र में उतरता जाएगा । वैदिक-दर्शन में ईश्वर को सर्वव्यापक माना गया है। वह व्यापकता शरीर-दृष्टि से है, अथवा आत्म-दृष्टि से या भाव दृष्टि से है ? चूंकि यह भी माना गया है कि हर आत्मा परमात्मा बन सकती है । प्रत्येक प्रात्मा में जब परमात्मा बनने की योग्यता है, तो वस्तुतः आत्मा ही ईश्वर है । आत्मा श्रावरण से घिरी हुई है, इसलिए जो प्रखण्ड प्रानन्द का स्रोत है, वह अभी दबा हुआ है, और जो अनन्त प्रकाश है, वह अभी संकीर्ण हो गया है, सीमित हो गया है और धुंधला हो गया है। इस प्रकार दो बातें हमारे सामने आती हैं। एक यह कि प्रत्येक आत्मा परमात्मा बन सकती है, और दूसरी यह कि परमात्मा सर्वव्यापक है । जैन दृष्टिकोण के साथ इसका समन्वय करें, तो मात्र कुछ शब्दों के जोड़-तोड़ के सिवा और कोई विशेष अन्तर नहीं दिखाई देगा। हमारे पास समन्वय बुद्धि है, अनेकान्त दृष्टि है और यह दृष्टि तोड़ना नहीं, जोड़ना सिखाती है— सत्य को खण्डित करना नहीं, बल्कि पूर्ण करना बताती है । सर्वव्यापक शब्द को हम समन्वय बुद्धि से देखें, तो इसका अर्थ होगा, अपने स्वार्थी से निकल कर आसपास की जनता के, समाज के तथा देश के और अन्ततः विश्व के प्राणियों के प्रति जितनी दूर तक दया, करुणा और सद्भावना की धारा बहाती चली जाती है, प्रेम और समर्पण की वृत्ति जितनी दूर तक जगती चली जाती है, उतनी ही वह व्यापक बनती जाती है। हम आन्तरिक जगत् में, जितने व्यापक बनते जाएँगे, हमारी सद्वृत्तियाँ जितनी दूर तक विस्तार पाती जाएँगी और उनमें जन हित की सीमा जितनी व्यापक होती जाएगी, उतना ही ईश्वरीय अंश हमारे अन्दर प्रकट होता जाएगा । जितना - जितना ईश्वरत्व जागृत होगा, उतना उतना ही प्रात्मा परमात्मा के रूप में परिणत होता चला जाएगा। सुख बाँटते चलो : आपका परमात्मा आपके अन्दर कितना जागृत हुआ है, इसको नापने का 'बैरोमीटर' भी आपके पास है । उस 'बैरोमीटर' से श्राप स्वयं को भी जान पाएँगे कि अभी आप कितने व्यापक बने हैं ! कल्पना कीजिए, आप के सामने आप का परिवार है, उस परिवार में बूढ़े माँ-बाप हैं, भाई-बहन हैं और दूसरे सगे-सम्बन्धी भी हैं। कोई रोगी भी है, कोई पीड़ित भी है । कोई ऐसा भी है, जो न तो कुछ कमा सकता है और न ही कुछ श्रम कर सकता है। ऐसे परिवार का उत्तरदायित्व आपके ऊपर है। इस स्थिति में आपके मन में कल्पना उठती है कि "सब लोग मेरी कमाई खाते हैं, सब के सब बेकार पड़े हैं, न के दुश्मन बन रहे हैं, काम कुछ नहीं करते । बूढ़े माँ-बाप अभी तक परमात्मा की शरण में नहीं जा रहे हैं, जब बीमार पड़ते हैं, तो उन्हें दवा चाहिए, यह चाहिए, वह चाहिए । और इस कुण्ठित विचार के बाद आप उन्हें उपदेश दें कि अब क्या रखा है संसार में ? छोड़ो संसार को । बहुत दिन खाया-पीया । कब तक ऐसे रहोगे ? आखिर तो मरना ही है एक दिन ।' यह उपदेश तो ग्रापका काफी ऊँचा है, बहुत पहुँची हुई बात है आपकी, पर आपका दृष्टिकोण कहाँ तक पहुँचा है, यह भी तो देखिए । वास्तव में आप यह उपदेश किसी सहज वैराग्य से प्रेरित हो कर दे रहे हैं, या अपने सुख का और सुख के साधनों का ४२२ Jain Education International For Private & Personal Use Only पन्ना समिवख धम्मं www.jainelibrary.org

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