Book Title: Panna Sammikkhaye Dhammam Part 01
Author(s): Amarmuni
Publisher: Veerayatan

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Page 444
________________ कराह रहा है, वह आत्मा है। शरीर का जन्म चाहे जहाँ हुआ हो, चाहे जिस घर में हुअा हो, आत्मा का जन्म तो कहीं नहीं होता। आत्मा, तो प्रात्मा है। वह ब्राह्मण के यहाँ हो तो क्या, शूद्र के यहाँ हो तो क्या ? हम तो प्रात्मा की सेवा करते हैं, शरीर की नहीं। प्रात्मा की सेवा करनी है, तो फिर शरीर के सम्गन्ध में यह क्यों देखा जाता है कि यह भंगी का शरीर है, या चमार का ? भंगी और चमार की दृष्टि यदि है, तो इसका स्पष्ट अर्थ है कि आपने अब तक आत्मा को आत्मा के रूप में ठीक तरह देखा ही नहीं । आत्मा के नहीं, शरीर के ही दर्शन प्राप कर रहे हैं। बाहर में जो जाति-पाँति के झगड़े हैं, दायरे हैं, आप अभी तक उन्हीं में बन्द हैं। प्रात्मा न भंगी है, न चमार है, न स्त्री है, न पुरुष है और न काला है, न गोरा है। प्रात्मा-आत्मा में कोई भेद नहीं है। आत्मा में परमात्मा का वास है। वस्तुतः जो प्रात्मा है, वही परमात्मा है। ये उदात्त विचार, यह विशाल दष्टिकोण जबतक आपके हदय में जागत नहीं होता, तबतक आप परमात्मतत्त्व की ओर नहीं बढ़ सकते । मेरे कहने का अभिप्राय यह है कि जब मनुष्य परस्पर में भेद की दीवारें खड़ी कर देता है, अपने मन में इतने क्षुद्र घेरे बना लेता है, उसकी दृष्टि जातीयता के छोटे-छोटे टुकड़ों में बँट जाती है, तो वह अपने ही समान मानव जाति की सेवा और सहायता नहीं कर पाता। ___भारतीय संस्कृति की विराट् भावनाएँ, उच्च अवधारणाएँ यहाँ तक पहुँची है कि यहाँ साँप को भी दूध पिलाया जाता है। संसार भर में भारत ही एक ऐसा देश मिलेगा, जहाँ पशु-पक्षियों के भी त्योहार मनाये जाते हैं। नाग पंचमी आई तो साँप को दूध पिलाया गया, गोपाष्टमी आई तो गाय और बछड़े की पूजा की गई। 'सीतला' (राजस्थान का त्योहार) आई तो बिचारे गर्दभराज को पूजा प्रतिष्ठा मिल गई। यहाँ की दया और करुणा का स्वर कितना मुखर है कि जो साँप दूध पीकर भी जहर उगलता है, मनुष्य को काटने के लिए तैयार रहता है, जो मनुष्य के प्राणों का शत्रु है, उसे भी दूध पिलाया जाता है, शत्रु को भी मित्र की तरह पूजा जाता है। जहाँ पर दया और करुणा का, पवित्र मानवता का इतना उच्च विकास हुआ है, वहाँ मानव प्राज अपने ही स्वार्थों और इच्छात्रों का दास बना हुआ है। अपने स्वार्थ के लिए दूसरों के प्राणों से खेल रहा है। जबतक ये वासना और विकार के बंधन नहीं टूटते, स्वार्थ की बेड़ियाँ नहीं टूटती, तबतक मनुष्य अपने आप में कैद रहेगा। और अपने ही क्षुद्र घेरे में, पिंजड़े में बन्द पशु की तरह घूमता रहेगा। संसार का तो क्या भला करेगा वह, स्वयं अपना ही भला नहीं कर सकेगा। जब तक मानव-मानव के मन में यह भावना गहराई में उतर न जाएगी कि:--"हम सभी एक ही प्रभु की सन्तान हैं, सबके अन्दर एक ही प्रभु विराजित है, अतः हम सभी भाईभाई है"-तबतक किसी बन्धुभाव-स्थापना की कल्पना करना मात्र कल्पना ही रहेगी। भेद-मुक्त सर्वतोमुखी व्यापक विचार-चेतना ही विश्व-बन्धुता का मूलाधार है। चितन एवं विचार की यही एक स्वस्थ, सही एवं सुगम पीठिका है, जहाँ मानव-मन के अन्दर 'वसुधैव कुटुम्बम्' की विराट् भावना का उदय हो सकता है। विश्व-कल्याण एवं विश्वशांन्ति की, विराट् कामना, तभी पूरी हो सकती है, अन्यथा नहीं । वसुधैव कुटुम्बकम् : बूंद नहीं, सागर ४२५ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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