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हृदय की गहराई से निकले हुए ये स्वर परमात्म-चेतना के व्यापक स्वर हैं। जहाँ परमात्मतत्त्व छिपा बैठा है. प्रात्मा के उसी निर्मल उत्स से वाणी का यह निर्झर फटा है। यह मेरा है, यह तेरा है, इस प्रकार अपने और पराए के रूप में जो संसार के प्राणियों का बँटवारा करता चला जाता है, उसके मन की धारा बहत सीमित है, क्षुद्र है। ऐसी क्षुद्र मनोवृत्ति का मानव समाज के किसी भी क्षेत्र में अपना उचित दायित्व निभा सकेगा, अपने परिवार का दायित्व भी ठीक से वहन कर सकेगा, जो जिम्मेदारी कंधों पर आ गई है उसे ठीक तरह पूरी कर सकेगा-इसमें शंका है। कभी कोई अतिथि दरवाजे पर पाए और वह उसका खुशी से स्वागत करने के लिए खड़ा हो जाए तथा आदर और प्रसन्नतापूर्वक अतिथि का उचित स्वागत करे---यह आशा उन मनुष्यों से नहीं की जा सकती, जो अपने-पराए' के दायरे में बंध हए हैं। किस समय उनकी क्या मनोवृत्ति रहती है, किस स्थिति में उनका कौन अपना होता है, और कौन पराया होता है—यह सिर्फ उनके तुच्छ स्वार्थों पर निर्भर रहता है, और कुछ नहीं।
इसके विपरीत जिनके मन के क्षुद्र घेरे हट गए है, जो स्वार्थो की कैद से छूट गए हैं, उनका मन विराट रहता है। विश्व-मंगल और अभ्युदय की निर्मल धारा सनके हृदय में निरन्तर बहती रहती है। विश्व की आत्माओं के सुख-दुःख के साथ उनके सुख-दुःख बँधे रहते हैं। किसी प्राणी को तड़पते देखकर उनकी आत्मा द्रवित हो उठती है, फलस्वरूप किसी के दुःख को देखकर सहसा उसे दूर करने के लिए वे सक्रिय हो उठते हैं। उनका कभी कोई पराया होता ही नहीं। सभी अपने होते हैं। सब घर. अपने घर ! सब समाज, अपना समाज! अपने परिवार के साथ उनका जो स्नेह-सौहार्द है, वही पडोस के साथ, वही मोहल्ले वालों के साथ और वही गाँव, प्रान्त और राष्ट्र के साथ । उनका यह व्यापक स्नेह
और सौहार्द नितांत निश्छल एवं निर्मल होता है। उसमें वैयक्तिक स्वार्थ की कोई गन्ध नहीं होती। आज की तरह इनका प्रान्तीय स्नेह केवल राजनीतिक स्वार्थ साधने का हथियार नहीं होता है। आज सब ओर नारे लग रहे हैं, 'अपना प्रान्त अलग बनायो, तभी उन्नति होगी।' वस्तुत: देखा जाए, तो इन तथाकथित नेताओं को प्रान्त की उन्नति की उतनी चिन्ता नहीं है, जितनी कि स्वयं की उन्नति की चिन्ता है। प्रान्त का भला कुछ कर सकेंगे या नहीं, यह तो दूर की बात है, पर अपना भला तो कर ही लेंगे। जन-सेवा हो, या न हो, किन्तु अपने राम की तो अच्छी सेवा हो ही जाएगी। सेवा का मेवा मिल ही जाएगा। प्रान्त और देश में दूध-दही की नदी तो दूर, पानी की नहर या नाला भी बने या न बने, पर अपने घर में तो सम्पत्ति की गंगा आ ही जाएगी। आज के ये सब ऐसे स्वार्थ और क्षुद्र विचार हैं, जिनसे देश के खण्ड-खण्ड हो रहे हैं, मानवता के टुकड़े-टुकड़े हो रहे हैं। जातिवाद, प्रान्तवाद, सम्प्रदायवाद आदि कुछ ऐसी कैंचियां हैं, जिनसे इन्सानों के दिल काटे जाते हैं, मानवता के टुकड़े किए जाते हैं, और अपने पद प्रतिष्ठा, और सुख-ऐश्वर्य के प्रलोभन में मानव जाति का सर्वनाश किया जाता है। जो इन सब विकल्पों से परे मानव का 'शुद्ध मानव' के रूप में दर्शन करता है, उसे ही अपना परिवार एवं कुटम्ब समझता है, वह व्यापक चेतना का स्वामी नर के रूप में नारायण का अवतार है।
कल्पना कीजिए, आप किसी रास्ते से गुजर रहे हैं। आपने वहाँ किसी बच्चे को देखा, जो घायल है, वेदना से कराह रहा है। आपका हृदय द्रवित हो गया और आपके हाथ ज्यों ही उसे उठाने को आगे बढ़ते हैं, आवाज आती है, यह तो 'चण्डाल' है, भंगी है और आप सहसा रुक गए। इसका क्या अर्थ हुआ ? आप में अहिंसा और करुणा की एक क्षीण ज्योति जली तो थी, पर जातिवाद की हवा के एक हल्के-से झोंके से वह सहसा बुझ गई। आप करुणा को भूलकर जातिवाद के चक्कर में आ जाते हैं कि यह तो भंगी का लड़का है, भला इसे मैं कैसे छ सकता हूँ? चमार का लड़का है, कैसे उठाएँ ? इस क्षद्र भावना की गन्दी धारा में बह जाते हैं आप, जहाँ प्रेम का पवित्र जल नहीं, किन्तु जातिवाद का गन्दा पानी बहता है। आपके मन में ऐसे समय में यह भावना होनी चाहिए कि जो वेदना से
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पन्ना समिक्खए धम्म
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