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गौतम का मन अचकचाया, इस सत्य को कैसे स्वीकार करे? पूछा-"प्रभु ! यह कैसे हो सकता है, कहाँ आप जैसे महान् धर्मावतार की सेवा, दर्शन और स्मरण ? और कहाँ वह संसार का दुःखी, दीन-हीन प्राणी, जो अपने कृत-कर्मों का फल भोग रहा है ? फिर आपकी सेवा से बढकर उसकी सेवा महान कैसे हो सकती है? वह धन्य किस दष्टि से है?'
भगवान् ने उक्त प्रतिप्रश्न का जो प्रत्युत्तर दिया, वह इतिहास के पृष्ठों पर आज भी महान् ज्योति की तरह जगमगा रहा है। उन्होंने कहा--"गौतम! समझते हो, भगवान् की उपासना क्या चीज है ? भगवान् की देह की पूजा करना, देह के दर्शन करना मात्र उपासना नहीं है। सच्ची उपासना है, उनके आदेश एवं उपदेश का पालन करना।" भगवान् की आज्ञा की आराधना करना ही भगवान की आराधना है। उनके सद्गुणों को, सेवा, करुणा और सहिष्णुता के आदर्शों को जीवन में उतारना, यही सबसे बड़ी सेवा है। आत्माएँ सब समान हैं। जैसा चैतन्य एक दीन-दुःखी में है, वैसा ही चैतन्य मुझ में है। प्रत्येक चैतन्य दुःख-दर्द में घबराता है, सुख चाहता है, इसलिए उस चैतन्य को सुख पहुँचाना, आनन्द और प्रकाश की लौ जगाकर उसे प्रफुल्लित कर देना, यही मेरा उपदेश है। इस उपदेश का, जो भी पालन करता है, वह मेरी ही उपासना करता है, अतः वही धन्यवाद का योग्य पात्र है।
किन्तु, आज जब मानव के व्यावहारिक जीवन पर दृष्टिपात् करता हूँ, तो कुछ और ही पाता हूँ। वहाँ भगवान् के उक्त उपदेश का विपरीत प्रतिफलन ही देखा जा रहा है। मैं पूछता हूँ, भगवान के नाम पर बाहरी ऐश्वर्य का अम्बार तो आपने लगा दिया, भगवान् को चारों ओर सोने से मढ़ दिया है। कहना चाहिए, एक तरह से सोने के नीचे दबा दिया है। मन्दिरों के कलशों पर सोना चमक रहा है। पर, कभी यह भी देखा है आपने कि यह आपके अन्तर्मन के कलश का सोना, काला पड़ रहा है या चमक रहा है, मन दरिद्र बना हुआ है या ऐश्वर्यशाली है ? यह आडम्बर किसके लिए है ? भगवान की पूजा और महिमा के लिए या अपनी पूजा-महिमा के लिए ? जहाँ तक मैं समझ पाया हूँ, यह सब अपने अहंकार को तृप्त करने के ही साधन बन रहे हैं। व्यक्ति के अपने अहंकार-पोषण हो रहे हैं, इन आडम्बरों के द्वारा और इतना ही नहीं, दूसरों के अहं को ललकारने के माध्यम भी बनते हैं, ये मर्यादाहीन प्रदर्शन!
एक अोर तो हम कहते हैं--"प्रप्पा सो परमप्पा" प्रात्मा ही परमात्मा है। "यद पिण्डे तद् ब्रह्माण्डे" जो पिण्ड में हैं, वही ब्रह्माण्ड में है। ईश्वर का, भगवान् का प्रतिबिम्ब प्रत्येक आत्मा में पड़ रहा है। हमारे धर्म एक ओर प्रत्येक प्राणी में भगवान् का रूप देखने की बात करते हैं। परन्तु दूसरी ओर अन्य प्राणी की बात तो छोड़ दीजिए, सृष्टि का महान् प्राणी--मनुष्य जो हमारा ही जाति-भाई है, वह भूख से तड़प रहा है। चैतन्य भगवान् छटपटा रहा है और हम मूर्ति के भगवान् पर दूध और मिश्री-मक्खन का भोग लगा रहे हैं, मेवा-मिष्टान्न चढ़ा रहे हैं। यह मैं पूर्वाग्रहवश किसी विशेष पूजा-पद्धति एवं परम्परा की आलोचना नहीं कर रहा हूँ। किसी पर आक्षेप करना न मेरी प्रकृति है और न मेरा सिद्धान्त। में तो साधक के अन्तर में विवेक जागृत करना चाहता है और चाहता हूँ, उसे अतिरेक से बचाना। कभी-कभी भक्ति का विवेक शून्य अतिरेक भक्ति-सिद्धान्त की मूल भावना को ही नष्ट कर डालता है और इस प्रकार की उपासना कभी-कभी एक बिडम्बना मात्र बन कर रह जाती है।
भारतीय चिन्तन सदा से यह पुकार रहा है कि भक्त ही भगवान् है । भगवान् की विराट् चेतना का छोटा संस्करण ही भक्त है। बिन्दु और सिन्धु का अन्तर है। बिन्दु बिन्दु है जरूर, पर उसमें सिन्धु समाया हुआ है। यदि बिन्दु ही नहीं है, तो फिर सिन्धु
१. प्राणाराहणं दंसणं खु जिणाणं
-उत्तराध्ययन, अ. २, कमल संयमी वृत्ति ।
पन्ना समिक्खए धम्म
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