Book Title: Panna Sammikkhaye Dhammam Part 01
Author(s): Amarmuni
Publisher: Veerayatan

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Page 449
________________ के अंकुर नहीं फूटेंगे, तब-तक मनुष्य अपने बहुमूल्य साधन एवं जीवन को किसी के लिए अर्पित करे भी तो कैसे करेगा ? अपना प्रेम कैसे लुटाएगा ? विना वैराग्य के त्याग और लदान की भावना नहीं जगेगी, और उसके बिना मनुष्य में उदारता का भाव कैसे पैदा होगा ? जबतक हमें अपने जीवन का मोह है, वैयक्तिक सुख-भोग की लालसा है, तबतक हम अपने जीवन को अपनी सुख-सुविधाओं को किसी दूसरे जीवन के लिए, धर्म और समाज के लिए, देश और राष्ट्र के लिए बलिदान करने को तैयार नहीं हो सकते । शास्त्र में कहा है- जो व्यक्ति और कुछ भी तत्त्वज्ञान नहीं जानता, विशेष सत्कर्म भी नहीं करता, किन्तु सिर्फ माँ-बाप की सेवा करता है, निष्ठा और भक्तिपूर्वक उनके सुखों के लिए अपना सर्वस्व बलिदान कर देता है, तो उस सेवा के प्रभाव से ही उसके लिए स्वर्ग के द्वार खुल जाते हैं । इसी प्रकार पति-पत्नी यदि जीवन में कृतज्ञता की भावना से चलते हैं, तो वे भी जीवन - विकास के उच्च प्रारोहण में अग्रसर होते हैं, अपने ध्येय की ओर गतिशील होते हैं । जीवन में यह जो सामाजिक सेवा और समर्पण की स्वर्ण मुद्रा है, यदि साधना के क्षेत्र में उसका कोई मूल्य नहीं होता, तो फिर उससे स्वर्ग के द्वार खुलने की बात क्यों कही जाती ? यदि वह पाप ही है, तो उससे नरक के द्वार खुलते, स्वर्ग के नहीं । जब प्राचीन ऋषि-मुनियों ने उस सेवा को कुछ महत्त्व दिया है, तो उसका आधार वैराग्य और करुणा ही हो सकता है, स्वार्थ या अहंकार नहीं माना कि वह एक रागात्मक भूमिका है, पर इतने मात्र से क्या वह पाप हो गया ? उस राग के साथ यदि त्याग और उदारता का भाव नहीं जगा होता, तो मनुष्य किसी प्रभाव ग्रस्त दूसरे व्यक्ति के लिए अपने आपको अपने सुखों को निछावर करने के लिए कभी भी तैयार नहीं होता । सेवा : तप से भी महान् चिन्तन की गहराई में उतरने पर श्राप जान सकते हैं कि जीवन के जितने भी पारिवारिक एवं सामाजिक सम्बन्ध हैं, वे सब मानवीय हृदय के आधार पर टिके हुए हैं, करुणा और स्नेह के बल पर वे चलते हैं। उनमें उदारता और सहिष्णुता का भाव भरा रहता है। उक्त सम्बन्धों पर यदि दार्शनिक दृष्टि से विचार करें, तो राग का प्रश्न भी हल हो सकता है । सामाजिक एवं पारिवारिक सम्बन्धों में जो रागात्मक अंश है, यदि उसे निकाल दें, स्वार्थ का जितना भाव है, उसे त्याग दें, और जो भी सत्प्रयत्न एवं सत्कर्म किया जाए, वह मात्र निष्काम भाव से किया जाए, किसी भी प्रकार के स्वार्थ या प्रतिफल की प्राकांक्षा के बिना केवल कर्तव्य के नाते किया जाए, तो वह सत्कर्म हमारे जीवन के बन्धनों को तोड़ कर मुक्ति के द्वार भी खोल सकता है। यह वह स्थिति है, जहाँ जीवन की आध्यात्मिक पवित्रता के सम्पूर्ण दर्शन हो सकते हैं । जीवन में यदि वैयक्तिक स्वार्थों के द्वन्द्व से मुक्त होकर एक भी सद्गुण को निष्ठापूर्वक विकसित किया जाए, तो वह भी 'मनुष्य को महान् बना देता है । और जहाँ अनेक सद्गुण जीवन में विकास पाते हैं, जीवन के मलों को धोकर उसे परम पवित्र बनाते हैं, वहाँ तो मुक्ति के द्वार, अनन्त सुख के द्वार, मनुष्य के सामने स्वतः ही खुल जाते हैं । यहाँ एक बात और स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि जीवन में जो रागात्मक अंश है, उसे समाप्त करने का अर्थ इतना ही है कि हम अपने स्वार्थ या लाभ की कामना से दूर हट कर निष्काम भाव से कर्म करें। किन्तु फिर भी उसमें मानवीय सहज स्नेह का निर्मल अंश तो रहता ही है । यदि यह स्नेह न हो, तो मानव, मानव ही नहीं रहता, पशु से भी निकृष्ट बन जाता । यह स्नेह ही मानव को परस्पर सहयोग, समर्पण और सेवा के उच्चतम प्रादर्श की ओर प्रेरित करता है । व्यक्तिगत जीवन से समष्टिगत जीवन की व्यापक महानता की ओर अग्रसर करता है । जैन-साधना में व्यक्तिगत जीवन की साधना से भी अधिक महत्त्व सामाजिक साधना ४३० Jain Education International For Private & Personal Use Only पन्ना समिक्ख धम्मं www.jainelibrary.org.

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