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का है। सामाजिक साधना से मेरा मतलब है--निष्काम भाव से जन-सेवा। इस सम्बन्ध में भगवान महावीर ने तो यहाँ तक कहा है कि-एक व्यक्ति तप करता है, कठोर एवं लम्बे तप के द्वारा अपने को तपा रहा है। इसी बीच कहीं अन्यत्र आवश्यकता हई सेवा करने की. तो वह अब क्या करे? प्राथमिकता किसे दी जाए, सेवा को या तप को ? यदि वह इतना समर्थ है कि किसी वृद्ध या रोगी आदि की सेवा करता हुआ भी अपना तप चालू रख सकता हो, तब तो तप भी चालू रखे और सेवा भी करे। और यदि दोनों काम एक साथ चालू रखने में समर्थ न हो, तो फिर तप छोड़ कर सेवा करे। उपवास आदि तप को गौण किया जा सकता है, परन्तु सेवा को गौण नहीं किया जा सकता।
यहाँ प्रश्न उपस्थित होता है कि उपवास, जो कि हमारा आध्यात्मिक प्राण है, यदि उसे तोडते हैं, तो पाप लगना चाहिए? इसके उत्तर में आचार्य जिनदास, प्राचार्य सिद्धसेन
आदि, जिनका कि चिन्तन जितना गहरा था, उतना ही उन्मुक्त भी था, जो सत्य उन्होंने समझ लिया, उसे व्यक्त करने में कभी आगा-पीछा नहीं किया, वे कहते हैं कि उपवास करने से जितनी शुद्धि और पवित्रता होती है, उससे भी अधिक शुद्धि-पवित्रता सेवा में होती है। उपवास तुम्हारी व्यक्तिगत साधना है, उसका लाभ सिर्फ तुम्हारे तक ही सीमित है, परन्तु सेवा एक विराट साधना है। सेवा दूसरों के जीवन को भी प्रभावित करती है। जिस व्यक्ति की जीवन-नौका सेवा के विना डगमगा रही है, विचलित हो रही है, जिसकी भावना चंचल हो रही है, धर्म-साधना गड़बड़ा रही है, सेवा उसे सहारा देती है, साधना में स्थिर बनाती है। इस प्रकार एक बुझता हुआ दीपक फिर से जगमगा उठता है, सेवा का स्नेह पाकर । दीप-से-दीप जलाने का यह पवित्र कार्य सेवा के माध्यम से ही बन पड़ता है। एक आत्मा को जागृत करना और उसमें प्रानन्द की लौ जगा देना, कितनी उच्च साधना है, और यह साधना सेवा के द्वारा ही सम्भव हो सकती है। इसलिए जो प्रानन्द और पवित्रता सेवा के माध्यम से प्राप्त की जा सकती है, वह तप के द्वारा नहीं। जब तप करने के लिए तैयार हो तो पहले साधक को यह देखना है कि किसी को मेरी सेवा की तो आवश्यकता नहीं? वह तप की प्रतिज्ञा करते समय भी मन में यह संकल्प रखता है कि यदि मेरी सेवा की कहीं आवश्यकता हुई तो मैं तप को बीच में छोड़कर सेवा को प्राथमिकता दूंगा। सेवा मेरा पहला धर्म होगा।
सेवा : सच्ची आराधना है :
जैन-धर्म ने जीवनोपयोगी इन्हीं सूक्ष्म बातों पर विचार किया है और गम्भीर विचार के बाद यह उपदेश दिया है कि सेवा उपवास प्रादि तप से भी बढ़कर महान धर्म है, प्रमुख कर्तव्य है। भगवान महावीर ने कहा है--उपवास आदि बहिरंग तप है, और सेवा अन्तरंग तप है। बहिरंग से अन्तरंग श्रेष्ठ है, बन्धन मुक्ति का साक्षात् हेतु अन्तरंग है, बहिरंग नहीं ।
सेवा के सम्बन्ध में एक बहुत गम्भीर प्रश्न जैन-शास्त्रों में उठाया गया है। गणधर गौतम एक वार भगवान महावीर से पछते हैं-"प्रभ एक व्यक्ति प्रापकी सेवा क आपका ही भजन करता है, उसकी साधना के प्रत्येक मोड़ पर आपका ही रूप खड़ा है, श्रापकी सेवा, दर्शन, भजन, ध्यान के सिवा उसे जन-सेवा प्रादि अन्य किसी भी कार्य के लिए अवकाश ही नहीं मिलता है।
दूसरा, एक साधक वह है, जो दीन-दुखियों की सेवा में लगा है, रोगी और वृद्धों की संभाल करने में ही जुटा है, वह आपकी सेवा-स्मरण और पूजन के लिए अवकाश तक नहीं पाता, रात-दिन जब देखो, बस उसके सामने एक ही काम है-जन-सेवा ! तो प्रभु ! इन दोनों में कौन धन्य है? कौन धन्यवादाई है ?
महाप्रभु ने कहा---"गौतम ! जो बृद्ध, रोगी और पीड़ितों की सेवा करता है, मैं उसे ही धन्यवाद का पात्र मानता हूँ।"
१. जे गिलाणं पडियरई से धन्ने ।
विश्वकल्याण का चिरंतन पथ : सेवा-पथ
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