Book Title: Panna Sammikkhaye Dhammam Part 01
Author(s): Amarmuni
Publisher: Veerayatan

View full book text
Previous | Next

Page 432
________________ ही अधिकारी मान लिया जाता है, फलतः देने वाले को अहंकार का और लेने वाले को दीनता का शिकार होना पड़े, ऐसा कोई प्रश्न ही नहीं रहता। ठीक इसी प्रकार प्राप जब किसी को कुछ अर्पण करते हैं, तो उसे 'समविभागी' यानि बराबर का समझकर अर्पण करो जो उसके उपयुक्त हो और जिस वस्तु की उसे आवश्यकता हो, उसके वितरण में न आपके मन में दाता बनने का अहंकार जगे, और न लेने वाले के मन में कृतज्ञता के विपरीत अपने आपको तुच्छ मानने की भावना उठे और न ही दीनता का संकल्प ही जगे, यही उत्तम स्व-पर-कल्याणकारी दान है। ____ अतः आज मानव-कल्याण की दिशा एवं दशा में सही परिवर्तन लाने के लिए समानता की भावना का जन-जन में स्वतःस्फूर्त होना परम आवश्यक है। समता की सभी क्षेत्रों में आज ज्वलंत मांग है, जिसे टाला नहीं जा सकता। यही एक कड़ी है, जिससे मानव-मानव के बीच भावनात्मक एकता की स्थापना संभव है। युग-युग की मांग : समानता ४१३ www.jainelibrary.org Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only

Loading...

Page Navigation
1 ... 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454