Book Title: Panna Sammikkhaye Dhammam Part 01
Author(s): Amarmuni
Publisher: Veerayatan
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ही है । ऐसा लगता है कि संसार भर के पाप आज मनुष्य के अन्दर आ रहे हैं और स्वप्न जाल की तरह अपने नये-नये रूपों से संसार को आक्रांत करना चाहते हैं । मनुष्य इतना क्रूर बन रहा है कि अपने स्वार्थ के लिए, भोग के लिए वह भयंकर से भयंकर हत्याएँ तक कर रहा है । और, इस कारण कभी-कभी इस पर सन्देह होने लगता है कि उसके हृदय है भी या नहीं ? एक जमाना था, जब देवी-देवताओं के नाम पर पशु हत्या की जाती थी, मूक और निरीह प्राणियों की बलि दी जाती थी । युग ने करवट बदली, अहिंसा और करुणा की पुकार उठी और व हत्याकांड काफी सीमा तक बन्द हो गए। पर आज जिस उदर देवता के लिए लाखों पशु प्रतिदिन बलि हो रहे हैं, क्या उसे कोई रोक नहीं सकता ? पहले देवताओं को खुश करने के लिए पशु हत्याएँ होती थीं, आज इस उदर-देवता, नहीं नहीं, राक्षस के भोजन और खाने के नाम पर पशु हत्या का चक्र चल रहा है। श्राज का सभ्य मनुष्य भोजन के नाम पर अपने ही पेट में मूक पशुओं की कब्र बना रहा है । कहना चाहिए कि वह आज पशुओं की कब्र पर ही सो रहा है। यह भोजन सम्बन्धी तथा सौन्दर्य-प्रसाधन के रूप में फैसन सम्बन्धी भयंकर पशु-पक्षी-संहार तब तक नहीं रुक सकता, जबतक मनुष्य के अन्दर शुद्ध देवत्व जागृत न हो, शुद्ध दृष्टिकोण न जगे, प्रत्येक जीवधारी में अपने समान ही आत्मा के दर्शन न करे ।
मनुष्य की भोगेच्छा प्राज इतनी प्रबल हो रही है कि उसकी बुद्धि कर्तव्य से चुंधिया गई है । अहंकार जाग्रत हो रहा है, फलतः वह सृष्टि का सर्वोत्तम एवं सबसे महान् प्राणी अपने को ही समझ रहा है। उसकी यह दृष्टि बदलनी होगी, आत्मा की समानता का भाव जगाना होगा । उसे यह अनुभव करना होगा कि जिस प्रकार की पीड़ा तुझे अनुभव होती है, वैसी ही पीड़ा की अनुभूति प्रत्येक प्राणी में है । किन्तु यह एक विचित्र बात है कि हम सिर्फ उपदेश देकर अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ लेते हैं, अध्यात्मवाद और अध्यात्म दृष्टि का गंभीर विश्लेषण करके उसे छोड़ देते हैं। विचारों से उतर कर अध्यात्मवाद आचार में रहा है, मुँह से बाहर निकल रहा है, पर मन की गहराई में नहीं उतर रहा है । जबतक अध्यात्म की चर्चा करनेवालों के स्वयं के जीवन में इसका महत्त्व नहीं समाएगा, नहीं उतरेगा, तब तक अध्यात्म को भूत-प्रेत की तरह भयानक समझ कर डरने वालों को हम इस ओर आकर्षित कैसे कर सकेंगे? इसके लिए आवश्यक है कि हमारी धर्म-दृष्टि, हमारा अध्यात्म, पहले अपने जीवन में मुखर हो। इसका प्रचार हमें अपने जीवन से शुरू करना चाहिए, तभी हमारी अध्यात्म दृष्टि की कुछ सार्थकता है, अन्यथा नहीं ।
करुणा :
विचार कीजिए -- एक व्यक्ति को प्यास लगी है, गला सूख रहा है, वह ठण्डा पानी पी लेता है, या मजे से शर्बत बनाकर पी लेता है, प्यास शान्त हो जाती है । तो क्या इसमें कुछ पुण्य हुना ? कल्याण का कुछ कार्य हुआ ? साता वेदनीय का बंध हुआ ? कुछ भी तो नहीं । अब यदि आप वहीं पर किसी दूसरे व्यक्ति को प्यास से तड़पता देखते हैं, तो आपका हृदय करुणा से भर आता है और आप उसे पानी पिला देते हैं, उसकी आत्मा शान्त होती है, प्रसन्न होती है और इधर आपके हृदय में भी एक शान्ति और सन्तोष की अनुभूति जगती है । यह पुण्य है, सत्कर्म है। अब इसकी गहराई में जाकर जरा सोचिए कि यह करुणा का उदय क्या है ? निवृत्ति है या प्रवृत्ति ? और पुण्य क्या है ? अपने वैयक्तिक भोग, या अन्य के प्रति अर्पण ? जैन-परम्परा ने व्यक्तिगत भोगों को पुण्य नहीं माना है । अपने भोग सुखों की पूर्ति के लिए आप जो प्रवृत्ति करते हैं, वह न करुणा है, न पुण्य है । किन्तु जब वह करुणा, समाज के हित के लिए जागृत होती है, उसकी भलाई के लिए प्रवृत्त होती है, तब वह पुण्य और धर्म का रूप ले लेती है । जैन धर्म की प्रवृत्ति का यही रहस्य हैं। समाज के लिए अर्पण, बलिदान और उत्सर्ग की भावना उसके प्रत्येक तत्त्व- चिन्तन पर छाई हुई है । उसके हर चरण पर समष्टि के हित का दर्शन होता है ।.
युग-युग की मांग : समानता
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