Book Title: Panna Sammikkhaye Dhammam Part 01
Author(s): Amarmuni
Publisher: Veerayatan

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Page 428
________________ के कलुष को, अनन्त-अनन्त जन्मों के पाप को धोकर स्वच्छ कर देती है, प्रकाश जगमगा देती है, संसार को दासता और बन्धनों से मुक्त करके प्रात्म-स्वातन्त्र्य और मोक्ष के केन्द्र में प्रतिष्ठित करने में समर्थ है, वह शास्त्र और उसकी ज्ञानधारा उन्होंने एक वर्गविशेष के हाथों में सौंप दी और कह दिया कि दूसरों को इसे पढ़ने का अधिकार नहीं। पढ़ने का अधिकार छीना सो तो छीना, उसे सुनने तक का भी अधिकार नहीं दिया। जो शूद्र पवित्र शास्त्र का उच्चारण कर दे, उसकी जीभ काट दी जाए, और जो उसे सन ले, उसके कानों में खोलता हुआ शीशा डाल कर शास्त्र सुनने का दण्ड दिया जाए !' कैसा था वह मानस ? मनुष्य-मनुष्य के बीच इतनी घृणा ? इतना द्वेष? जो शास्त्र महान् पवित्र वस्तु मानी जाती थी, उसमें भाषा को लेकर भी विग्रह पैदा हुए । एक ने कहा-संस्कृत देवताओं की भाषा है, अतः उसमें जो शास्त्र लिखा गया है, वह शुद्ध है, पवित्र है और प्राकृत तथा अन्य भाषाओं में जो भी तत्वज्ञान है, शास्त्र है, वह सब अपवित्र है, अधर्म है ! एक ने संस्कृत को महत्त्व दिया, तो दूसरे ने प्राकृत को ही महत्त्व दिया। उसे ही देवताओं की भाषा माना, पवित्र माना। इस प्रकार की भ्रान्त धारणाएँ इतिहास के पृष्ठों पर आज भी अंकित हैं, जिनसे ज्ञात होता है कि मनुष्य के अन्दर जाति, वंश, धर्म और भाषा का एक भयंकर अहंकार जन्म ले रहा था, ऐसा अहंकार जो संसार में अपनी श्रेष्ठता स्थापित करने के लिए दूसरों की श्रेष्ठता, प्रतिष्ठा और सम्मान को खण्ड-खण्ड करने पर तुल गया था। दूसरों की प्रतिष्ठा का महत्त्व गिरा कर अपनी प्रतिष्ठा एवं श्रेष्ठता के महल, उन खण्डहरों पर खड़ा करना चाहता था। उन्होंने मनुष्य के सम्मान का, उसकी आत्मिक पवित्रता का और आत्मा में छिपी दिव्य-ज्योति का अपमान किया, उसकी अवगणना की और उसे नीचे गिराने एवं लुप्त करने की अनेक चेष्टाएँ की। उन्होंने चरित्र एवं सदाचार का मूल्य जाति और वंश के सामने गिरा दिया। इस प्रकार अध्यात्मवाद का ढिंढोरा पीटकर भी वे भौतिकवादी बन रहे थे। भगवान् महावीर ने यह स्थिति देखी, तो उनके अन्दर में क्रान्ति की लहर लहरा उठी। उनके क्रान्त स्फूर्त-स्वर गूंज उठे-- "कम्मुणा बंभणो होइ, कम्मुणा होइ खत्तियो। बईसो कम्मुणा होइ, सुदो हवइ कम्मुणा ॥"-उत्त. २५, ३३. श्रेष्ठता और पवित्रता का प्राधार जाति नहीं है, बल्कि मनुष्य का अपना कर्म है, अपना आचरण है। कर्म से ही व्यक्ति ब्राह्मण होता है और कर्म से ही क्षत्रिय । वैश्य और शद्र भी कर्म के आधार पर ही होते हैं। संसार में कर्म की प्रधानता है। समाज के वर्ण और आश्रम कर्म के आधार पर ही विभक्त हैं। इसमें जाति कोई कारण नहीं है। मनुष्य की तेजस्विता और पवित्रता उसके तप और सदाचार पर टिकी हुई है, न कि जाति पर? "न दोसई जाइविसेस कोई" जातिविशेष का कोई कारण नहीं दीख रहा है। मनुष्य कर्म के द्वारा ऊँचा होता है, जीवन की ऊँचाइयों को नापता है और कर्म के द्वारा ही नीचे गिरता है, पतित होता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि इस युग में मानव के मन मेंजातिवाद और वर्गवाद का जो एक काँटों का घेरा खड़ा हो गया था, उसे जैन-धर्म ने तोड़ने की कोशिश की, मनुष्य-मनुष्य और प्रात्मा-प्रात्मा के बीन समता एवं समरसता का भाव प्रतिष्ठित करने का प्रबल प्रयत्न किया। प्रत्येक प्रात्मा समान है : जैन-धर्म ने विश्व को यह सन्देश दिया है कि 'तुम यह भावना अन्तर्मन में से विलीन कर दो कि कोई व्यक्ति जाति से नीचा है या ऊँचा है, बल्कि यह सोचो कि उसकी आत्मा १. तस्माच्छूद्रसमीपे नाध्येतव्यं, अथ हास्य वेदमुपशृण्वतस्त्रपुजतुभ्यां श्रोत्रप्रतिपूर्णम्, उदाहरणे जिल्ह्याच्छेदो, धारणे शरीरभेद इत्यादिना शूद्रस्य वेदश्रवणानिषिद्धत्वात् । -श्रीभाष्यम् (श्रुतप्रकाशिका वृत्ति) स. १, पा. १, सून १. युग-युग की मांग : समानता Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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