Book Title: Panna Sammikkhaye Dhammam Part 01
Author(s): Amarmuni
Publisher: Veerayatan

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Page 435
________________ इतिहास के उन पृष्ठों को उलटते ही एक विराट् जीवन-दर्शन हमारे सामने श्रा जाता है। त्याग, स्नेह और सद्भाव की वह सुन्दर तसवीर खिच जाती है, जिसके प्रत्येक रंग में एक आदर्श प्रेरणा और विराटता की मोहक छटा भरी हुई है। त्याग और सेवा की प्रखण्ड ज्योति जलती हुई प्रतीत होती है । रामायण में राम का जो चरित्र प्रस्तुत किया गया है, वह भारत की आध्यात्मिक और नैतिक चेतना का सच्चा प्रतिबिम्ब है। राम को जब अपने राज्याभिषेक की सूचना मिलती है, तो उनके चेहरे पर कोई हर्ष उल्लास नहीं चमकता है और न वनवास की स्थिति आने पर खिन्नता की कोई शिकन ही पड़ती है- राम की यह कितनी ऊँची स्थितप्रज्ञता है, कितनी महानता है कि जिसके सामने राज्य सिंहासन का न्यायप्राप्त अधिकार भी कोई महत्त्व नहीं रखता। जिसके लिए जीवन भौतिक सुख-सुविधा से भी अधिक मूल्यवान है पिता की आज्ञा, विमाता की मनस्तुष्टि ! यह आदर्श एक व्यक्तिविशेष का ही गुण नहीं, बल्कि समूचे भारतीय जीवन पट पर छाया हुआ है। राम तो राम हैं ही, किन्तु लक्ष्मण भी कुछ कम नहीं है । लक्ष्मण जब राम के वनवास की सूचना पाते हैं, तो वे उसी क्षण महल से निकल पड़ते हैं । नवोढ़ा पत्नी का स्नेह भी उन्हें रोक नहीं सका, राजमहलों का वैभव और सुख राम के साथ वन में जाने के निश्चय को बदल नहीं सका। वे माता सुमिला के पास आकर राम के साथ वन में जाने की अनुमति माँगते हैं । और माता का भी कितना विराट् हृदय है, जो अपने प्रिय पुत्र को वन-वन में भटकने से रोकती नहीं, अपितु कहती है-- राम के साथ वनवास की तैयारी करने में तुमने इतना बिलम्ब क्यों किया ? तुम्हें तत्काल ही राम के साथ चल देना चाहिए था। देखो बेटा, वन में तुम्हारा राम और सीता के साथ कैसा व्यवहार होना चाहिए -- "प्रसन्नतां या न गताऽभिषेकतः, तथा न मम्ले वनवासदुःखतः । " "रामं दशरथं विद्धि मां विद्धि जनकात्मजाम्, योध्यामटवीं विद्धि, गच्छ पुत्र ! यथासुखम् ।" - हे वत्स ! राम को पिता दशरथ की तरह मानना, सीता को मेरे समान समझना और वन को अयोध्या मानना । राम के साथ वन में जा, देख राम की छाया से भी कभी दूर मत होना । - वाल्मीकि रामायण, ४०।६ यह भारतीय जीवन का आदर्श है, जो प्रत्येक भारतीय आत्मा में झलकता हुआ दिखाई देता है । यहाँ परम्परागत अधिकारों को भी ठुकराया जाता है, स्नेह और ममता के बन्धन भी कर्तव्य की धार से काट दिए जाते हैं और एक-दूसरे के लिए समर्पित हो जाते हैं । ४१६ महावीर और बुद्ध का युग देखिए जब तरुण महावीर और बुद्ध विशाल राजवैभव, सुन्दरियों का मधुर स्नेह और जीवन की समस्त भौतिक सुविधाओं को ठुकराकर सत्य की खोज में शून्य- वनों एवं दुर्गम-पर्वतों में तपस्या करते घूमते हैं और सत्य की उपलब्धि कर समग्र जनजीवन में प्रसारित करने में लग जाते हैं। उनके पीछे सैकड़ों-हजारों राजकुमार, सामन्त और सामान्य नागरिक श्रमण भिक्षुक बनकर प्रेम और करुणा की अलख जगाते हुए सम्पूर्ण विश्व को प्रेम का सन्देश देते हैं । वे प्रकाश बनकर स्वयं तो दीप्त हैं ही, परन्तु दूर-दूर तक घूम-घूम कर घर-घर में जन-जन में सत्य ज्ञान - ज्योति का प्रखंड उजाला फैलाते हैं । Jain Education International अध्ययन की आँखों से जब हम इस उज्ज्वल अतीत को देखते हैं, तो मन श्रद्धा से भर श्राता है । भारत के उन आदर्श पुरुषों के प्रति कृतज्ञता से मस्तक झुक जाता है, जिन्होंने स्वयं अमृत प्राप्त किया और जो अमृत मिला, उसे सब ओर बाँटते चले गए । For Private & Personal Use Only पन्ना समिक्er धम्मं www.jainelibrary.org.

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