Book Title: Panna Sammikkhaye Dhammam Part 01
Author(s): Amarmuni
Publisher: Veerayatan

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Page 423
________________ परन्तु, आज ? आज तो यह स्थिति है कि किसी बीमार व्यक्ति को भी दूध मिलना मुश्किल हो जाता है ! आज दूध के लिए पैसे देने पर भी दूध के बदले पानी ही पीने को मिलता है । और, वह पानी भी दूषित होता है, जो दूध के नाम से देश के स्वास्थ्य को नष्ट करता है। गायों के सम्बन्ध में बात चलती है, तो हिन्दू कहता है---"वाह ! गाय हमारी माता है! गाय में तेतीस कोटि देवताओं का वास है! गाय के सिवा हिन्द-धर्म में और है ही क्या?" और जैन अभिमान के साथ कहता है-"देखो हमारे पूर्वजों को, एक-एक ने हजारोंहजारों और लाखों-लाखों गायें पाली थीं!" - इस प्रकार, क्या वैदिक और क्या जैन-सभी अपने वेदों, पुराणों और शास्त्रों की दुहाइयाँ देने लगते हैं। किन्तु जब उनसे पूछते हैं-तुम स्वयं कितनी गायें पालते हो, तो दाँत निपोर कर रह जाते हैं ! कोई उनसे कहे कि तुम्हारे पूर्वज गायें पालते थे, तो उससे आज तुम्हें क्या लाभ है? जिस देश में गाय का असीम और असाधारण महत्त्व माना गया, जिस देश ने गाय की सेवा को धार्मिक रूप तक प्रदान कर दिया. जिस देश के एक-एक गहस्थ ने जिस देश के एक-एक गृहस्थ ने हजारोंलाखों गायों का संरक्षण और पालन-पोषण किया और जिस देश के अन्यतम महापुरुष कृष्ण ने अपने जीवन-व्यवहार के द्वारा गोपालन की महत्त्वपूर्ण परम्परा स्थापित की, जिस देश की संस्कृति ने गायों के सम्बन्ध में उच्च-से-उच्च और पावन-से-पावन भावनाएँ जोड़ी, वह देश आज अपनी संस्कृति को, अपने धर्म को और अपनी भावना को भूलकर इतनी दयनीय दशा को प्राप्त हो गया है कि वह यथावसर बीमार बच्चों को भी दूध नहीं पिला सकता ! शुद्ध दूध के लिए गोपालन नहीं कर सकता। दूसरी ओर अमेरिका है, जिसे कुछ लोग म्लेच्छ देश तक कह देते हैं और उसके प्रति घृणा प्रदर्शित करते हैं ! अाज उसी अमेरिका में प्राप्त होने वाले दूध का यह हिसाब है, कि वहाँ एक दिन में इतना दूध होता है कि तीन हजार मील लम्बी, चालीस फुट चौड़ी और तीन फुट गहरी नदी दूध से पाटी जा सकती है ! हमारे सामने यह बड़ा ही करुण प्रश्न उपस्थित है कि हमारा देश कहाँ-से-कहाँ चला गया है ! यह देवों का देश आज किस दशा में पहुंच गया है ! देश की इस दयनीय दशा को दूर करके यदि समस्या को हल करना है, तो उसे अपनी जन-कल्याणी संस्कृति और धर्म से अनुप्राणित करना होगा। इन्सान जब भूखा मरता है, तो यह मत समझिए कि वह भूखा रह कर यों ही मर जाता है। उसके मन में घृणा और वैर होता है; और जब ऐसी हालत में मरता है, तो देश के निवासियों के प्रति घृणा और वैर लेकर ही जाता है ! वह समाज और राष्ट्र के प्रति एक कुत्सित भावना लेकर परलोक के लिए प्रयाण करता है। और खेद है कि हमारा देश आज हजारों मनुष्यों को इसी रूप में विदाई देता है ! किन्तु प्राचीन समय में ऐसी बात नहीं थी। भारत ने मरने वालों को प्रेम और स्नेह दिया है और उनसे प्रेम और स्नेह ही लिया है। उनसे द्वेष और अभिशाप नहीं लिया था ! आप चाहते हैं कि भारत से और सारे विश्व से चोरी और झूठ आदि पाप कम हो जाएँ। किन्तु भूख की समस्या को सन्तोषजनक रूप में हल किए बिना यह पाप किस प्रकार दूर किए जा सकते हैं ? आज किसी व्यसन से प्रेरित होकर और केवल चोरी करने के अभिप्राय से चोरी करने वाले उतने नहीं मिलेंगे, जितने अपनी और अपनी पत्नी तथा बच्चों की भूख से प्रेरित होकर, सब ओर से निरुपाय होकर, चोरी करने वाले मिलेंगे। उन्हें और उनके परिवार को भूखा रख कर आप उन्हें चोरी करने से कैसे रोक सकते हैं ? धर्मशास्त्र का उपदेश वहाँ कारगर नहीं हो सकता । नीति की लम्बी-चौड़ी बातें उन्हें पाप से रोकने में समर्थ नहीं हैं। नीतिकार ने तो साफ-साफ कह दिया है-- "बुभुक्षितः किं न करोति पापम् ? क्षीणा नरा निष्करणा भवन्ति ॥" पन्ना समिक्खए धम्म Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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