Book Title: Panna Sammikkhaye Dhammam Part 01
Author(s): Amarmuni
Publisher: Veerayatan

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Page 418
________________ नहीं लेंगे और अपने मन को स्पष्ट, निर्मल और साफ नहीं बना लेंगे, तब तक संसार को देने के लिए उनके पास कुछ भी नहीं है।। लोग मरने के बाद स्वर्ग की बातें करते हैं, किन्तु स्वर्ग की बात तो इस जीवन में भी सोचनी चाहिए। जो वर्तमान जीवन में होता है, वही भविष्य में प्राप्त होता है। जो जीते-जी यहाँ जीवन में कुछ नहीं बना है, वह मरने के बाद भी देश को मृत्यु की ओर ही ले जाएगा। वह देश को जीवन की ओर कदापि नहीं ले जा पाएगा। हम देहात से गुजरते हैं, तो देखते हैं कि बेचारे गरीब ऐसी रोटियाँ, ऐसा अन्न खाते हैं कि शायद आप उसे देखना भी पसंद न करें, हाथ से छुएँ भी नहीं। यही आज भारत की प्रधान समस्या है और इसी को आज सुलझाना है। आप जबतक अपने आपमें बंद रहेंगे, कैसे मालूम पड़ेगा कि संसार कहाँ रह रहा है ? किस स्थिति में जीवन गुजार रहा है ? आप जैसे मानव-बन्धुओं को ठीक तरह समय पर रोटी मिल रही है कि नहीं? तन ढंकने को कपड़ा मिल रहा है या नहीं ? आज का भारतवर्ष इतना गरीब है कि बीमार व्यक्ति अपने लिए यथोचित दवा भी नहीं जुटा सकता और बीमारी की कमजोर हालत में यदि कुछ दिन प्राराम लेना चाहता है, तो वह भी नहीं ले सकता! जिसके पास एक दिन के लिए दवा खरीदने को भी पैसा नहीं है, वह आराम किस बूते पर कर सकेगा? इन सब बातों पर आपको गंभीरता से विचार करना है। पृथ्वी के तीन रत्न: - अन्न की समस्या ऐसी विकट समस्या है कि सारे धर्म-कर्म की विचारधाराएँ और फिलॉसफियाँ उसके नीचे दब जाती है। बड़े-से-बड़े त्यागी-तपस्वी भी अन्न के बिना एक दो दिन तो बिता सकते हैं, जोर लगाकर कुछ और ज्यादा दिन भी निकाल देंगे, किन्तु आखिरकार उन्हें भी भिक्षा के लिए पात्र उठाना ही पड़ेगा। एक आचार्य ने कहा है "पृथिव्यां त्रीणि रलानि, जलमन्नं सुभाषितम् । मः पाषाणखण्डेषु, रत्नसंज्ञा विधीयते ॥" "भमण्डल पर तीन रत्न हैं, जल, अन्न, सुभाषित वाणी। पत्थर के टुकड़ों में करते, रत्न कल्पना पामर प्राणी ॥" इस पृथ्वी पर तीन ही मुख्य रत्न है--अन्न, जल और मीठी बोली । जो मनुष्य पत्थर के टुकड़ों में रत्न की कल्पना कर रहे है', आचार्य कहते हैं कि उनसे बढ़ कर पामर प्राणी और कोई नहीं है। जो अन्न, जल तथा मधुर बोली को रत्ल के रूप में स्वीकार नहीं करता है, समझ लीजिए, वह जीवन को ही स्वीकार नहीं करता है। सचमुच वह दया का पात्र है। अन्न : पहली समस्या : अन्न मनुष्य की सबसे पहली आवश्यकता है। मनुष्य अपने शरीर को, पिण्ड को लिए खड़ा है और इसके लिए सर्वप्रथम अन्न की और फिर कपड़े की आवश्यकता है। इस शरीर को टिकाए रखने के लिए भोजन अनिवार्य है। भोजन की आवश्यकता पूरी हो जाती है, तो धर्म की बड़ी-से-बड़ी साधना भी सध जाती हैं। हम पुराने इतिहास को देखें और विश्वामित्र आदि की कहानी पढ़ें, तो मालूम होगा कि बारह वर्ष के दुष्काल में वह कहाँ-से-कहाँ पहँचे और क्या-क्या करने को तैयार हो गए ! वे अपने महान सिद्धान्त से गिर कर कहाँ-कहाँ न भटके ! मैंने वह कहानी पढ़ी है और यदि उसे आपके सामने दुहराने लगू, तो सुनकर आपकी अन्तरात्मा भी तिलमिलाने लगेगी। द्वादशवर्षीय अकाल में बड़े देश की विकट समस्या : भूख ३६६ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org


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