Book Title: Panna Sammikkhaye Dhammam Part 01
Author(s): Amarmuni
Publisher: Veerayatan

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Page 401
________________ रावण और दुर्योधन को इतनी शताब्दियां बीत जाने पर भी आज संसार घृणा की दृष्टि से देखता है। आज कोई भी माता-पिता अपने पुत्र का नाम रावण या दुर्योधन के नाम पर नहीं रखना चाहता । राम का नाम आज घर-घर में मिल जाएगा। रामचन्द्र, रामलाल, रामसिंह और रामकुमार, चाहे जिधर आवाज दे लीजिए, कोई-न-कोई हुँकार करेगा ही, पर कोई रावणलाल, रावणसिंह या रावणकुमार भी मिलेगा ? दैवी और आसुरीवृत्तियों की भावना ही इस अन्तर के मूल में हैं। रावण, दुर्योधन और कंस में जहाँ श्रासुरीवृत्तियाँ मुखर थी, वहाँ राम और कृष्ण में देवी वृत्तियों का प्रस्फुटन था । यहीं कारण है। कि किसी पंडित ने रामकुमार या कृष्णकुमार की जगह रावण कुमार, दुर्योधन कुमार या कंसकुमार नाम नहीं निकाला । यह सब प्राचीन भारतीय तत्त्व- चिन्तन की एक विशेष मनोवृत्ति की झलक है । भारतीय तत्त्व-दर्शन कहता है कि संस्कृति का निर्माण संस्कारों से होता है, कोरे शिक्षण या अध्ययन से नहीं ! आज भारत में राम की संस्कृति चलती है, कृष्ण की संस्कृति जीवित है और धर्मपुत्र युधिष्ठिर की संस्कृति भी घर-घर में प्रचलित है, परन्तु क्या कहीं रावण की संस्कृति भी संस्कृति मानी गयी है ? रावण और दुर्योधन के संस्कार, वस्तुतः संस्कार नहीं थे, उन्हें तो विकार ही कहना उचित है, जो प्राज हमारे समाज में पुनः सिर उठा रहे हैं। हिंसा, उपद्रव और तोड़फोड़ के रूप में वे अप-संस्कार हमारे समाज के बच्चों में फिर करवट ले रहे हैं, अतः राम की संस्कृति के पुजारियों को सावधान हो जाना चाहिए कि रावण के संस्कारों को कुचले बिना, उन्हें बदले बिना राम की संस्कृति ज्यादा दिन जीवित नहीं रह सकेगी ! राम-रावण संघर्ष आज 'व्यक्ति वाचक' नहीं, बल्कि 'संस्कार-वाचक' हो गया है और वह संघर्ष श्राज फिर खड़ा होने की चेष्टा कर रहा है । विद्या का लक्ष्य : आप यदि विद्यार्थी वर्ग में पनपने वाले इन रावणीय संस्कारों को बदलना चाहते हैं, और विश्व में राम की संस्कृति एवं परम्परा को आगे बढ़ाना चाहते हैं, तो आपको अपना उत्तरदायित्व समझना होगा । यदि अगली पीढ़ी को दिव्य उत्थान के लिए तैयार करना है, तो अभी से उसके निर्माण की चिन्ता करनी होगी । बच्चों का बाह्य निर्माण तो प्रकृति ने कर दिया है, पर उनके आन्तरिक संस्कारों के निर्माण का कार्य भी शेष है । खेद है, बालक और बालिकाओं के इस संस्कार से सम्बन्धित जीवन-निर्माण की दिशा में आज चिन्तन नहीं हो रहा है। आप यदि चाहते हैं, कि आपके बालकों में, आपकी सन्तान में पवित्र और उच्च संस्कार जागृत हों, वे अपने जीवन का निर्माण करने में समर्थ बनें और समाज एवं राष्ट्र के सुयोग्य नागरिक के रूप में प्रस्तुत हो सकें, तो आपको अभी से इसका विचार करना चाहिए। आप इस विषय में चिन्ता जरूर कर रहे होंगे, पर आज चिन्ता का युग नहीं, चिन्तन का युग है । चिन्ता को दूर फेंकिए और मस्तिष्क को उन्मुक्त करके चिन्तन कीजिए कि बच्चों में शिक्षण के साथ उच्च एवं पवित्र संस्कार किस प्रकार जागृत हों । fair भी विद्यार्थी से आप पूछ लीजिए कि आप पढ़कर क्या करेंगे ? कोई कहेगा-डॉक्टर बनूंगा, कोई कहेगा इञ्जीनियर बनूंगा, कोई वकील बनना चाहेगा तो कोई अधिकारी । कोई इधर-उधर की नौकरी की बात करेगा, तो कोई दुकानदारी की। किन्तु यह कोई नहीं कहेगा कि मैं समाज एवं देश की सेवा करूंगा, धर्म और संस्कृति की सेवा करूँगा उनके जीवन में इस प्रकार का कोई उच्च संकल्प जगाने की प्रेरणा ही नहीं दी जाती । भारतीय संस्कृति के स्वर उनके जीवन को स्पर्श भी नहीं करते । हमारी भारतीय संस्कृति का यह उद्घोष है तुम अध्ययन कर रहे हो, शिक्षण प्राप्त कर रहे हो, किन्तु उसके लिए महत संकल्प जगाओ। वहीं स्पष्ट निर्देश किया गया है- “सा विद्या या विमुक्तये" 'तुम्हारे अध्ययन और ज्ञान की सार्थकता तुम्हारी विमुक्ति में है ।' जो विद्या तुम्हें और तुम्हारे ३८२ Jain Education International For Private & Personal Use Only पन्ना समिक्ख धम्मं www.jainelibrary.org.

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