Book Title: Panna Sammikkhaye Dhammam Part 01
Author(s): Amarmuni
Publisher: Veerayatan

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Page 412
________________ माघ--एक गरीब ब्राह्मण दरवाजे पर बैठा है। वह एक बड़ी आशा लेकर यहाँ पाया है। वह बेचारा बहुत गरीब है। एक जवान लड़की है, जिसकी शादी उसे करनी है, किन्तु करे तो कैसे? पास कुछ हो, तब तो! अतः वह अपने यहाँ कुछ पाने की आशा से आया है। मैंने देखा, घर में कुछ भी ऐसा नहीं है, जो उसे दिया जा सके। तब तुम्हारा कंगन नजर आया और यही खोलकर उसे दे देने का सोचा। मैंने तुम्हें जगाया नहीं, क्योंकि मुझे भय था कि कहीं तुम कंगन देने से इन्कार न कर दो। पत्नी-तब तो अाप चोरी कर रहे थे! __ माघ--हाँ, बात तो सही ही है, पर और करता भी क्या ? दूसरा कोई चारा भी तो नहीं था। पत्नी-मुझे आपके साथ रहते इतने वर्ष हो गए, किन्तु देखती हूँ, आप आज तक मुझे नहीं पहचान सके! आप तो एक ही कंगन ले जाने की सोच रहे थे, कदाचित् मेरा सर्वस्व भी आप ले जाएँ, तो भी मैं प्रसन्न ही होऊँगी। पत्नी का इससे बड़ा सौभाग्य और क्या होगा कि वह पति के साथ मानव-कल्याण-कार्य में काम आती रहे । बुलाइए न, वह ब्राह्मण देवता कहाँ है ? शुभ काम में देरी क्यों? और, माघ ने झट से बाहर आकर उस ब्राह्मण को बुलाया तथा अन्दर ले जाकर कहा--देखो भाई, मुझे घर में कुछ नहीं मिल रहा है, जो तुम्हें दे सकूँ। यह कंगन है, जो तुम्हारी इस पुत्री के पहनने के लिए है। उसी की ओर से तुम्हें यह भेंट किया जा रहा है। मेरे पास तो देने को कुछ भी नहीं है। पत्नी ने दोनों कंगन उतार कर सहर्ष ब्राह्मण को दे दिए। ब्राह्मण गद्गद हो उठा। विस्मय और हर्ष के आवेग में उसकी आँखों से झर-झर् प्रांसू की धाराएँ फूट चलीं। वह भगवान् को धन्यवाद देता हुमा तथा ऐसे महान् दम्पती का गौरवगान करता चला गया। कहने का अभिप्राय यह है कि भारतवर्ष में ऐसी बहनें भी हुई है, जिन्होंने अपनी दारुण दारिद्रय एवं दुस्सह दीनता की हालत में भी आशा लेकर घर पाए हुए अतिथि को खाली हाथ नहीं लौटाया। उन बहनों ने मानो यही सिद्धान्त बना लिया था ___ 'दानेन पाणिर्नतु कंकणेन'। -हाथ दान देने से सुशोभित होता है, कंगन से नहीं। गौरव की अधिकारिणी कौन ? ऐसी विराट् हृदय वाली बहनों ने ही महिला-समाज के गौरव को बढ़ाया है। ऐसीऐसी बहनें भी हो चुकी है, जिन्होंने अपरिचित भाइयों की भी उनकी गरीबी की हालत में सेवा की है और उन्हें अपने बराबर धनाढय भी बना दिया है। जैन इतिहास में उल्लेख प्राता है कि पाटन की रहने वाली एक बहन लच्छी (लक्ष्मी) ने एक अपरिचित जैन युवक को उदास देख कर ठीक समय उसकी सहायता की और उसे अपने बराबर धनाढ्य बना दिया। वही एक दिन का भूला-भटका हुआ, रोटी की तलाश में धक्के खाने वाला मरुधर देश का युवक ऊदा, एक दिन गुर्जर नरेश सिद्धराज जयसिंह का महामन्त्री उदयन बना और गुजरात के युगनिर्माता के रूप में जिसका नाम भारतीय इतिहास के स्वर्ण पृष्ठों पर आज भी चमक रहा है। ऐसी बहनें ही जगत् में गौरव की अधिकारिणी हैं। वे महिला-जाति में मुकुटमणि हैं। उनके आदर्श देश-काल की सीमाओं से परे हैं। परन्तु, कई बहिनें ऐसी भी है, जिनका घर भरा-पूरा है, जिन्हें किसी चीज की कमी नहीं है, फिर भी अपने हाथ से, किसी को एक रोटी का भी दान नहीं दे सकती ! किन्तु याद रखो, गृहिणी की शोभा दान देने से ही है, उदारता से ही है। जो दानशीला और नारी: धर्म एवं संस्कृति की सजग प्रहरी Jain Education Interational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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