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स्थिति लिखवा देते हैं, मन हुआ तो किसी अध्यापक का थोड़ा-सा भाषण सुन लेते हैं, नहीं तो किताबें बन्द करके इधर-उधर मटरगस्ती करने चले जाते हैं। ___अध्यापक भी आज अपना उत्तरदायित्व सीमित कर रहे हैं, स्कूल-कालेज में दोचार घण्टा के अतिरिक्त विद्यार्थी के जीवन से उनका कोई सम्पर्क नहीं रहता। बात यह है कि इस सम्पर्क का उनकी दृष्टि में कोई महत्त्व भी नहीं है। अध्यापकता को वे एक नौकरी समझते हैं, और उसके अतिरिक्त समय में विद्यार्थी से सम्पर्क रखना, एक झंझट
मानते हैं।
आज की शिक्षा-पद्धति में जो दोष और बुराईयाँ आ गई हैं, उनमें पहला कारण यह है कि शिक्षा का उद्देश्य' गलत दिशा में जा रहा है। शिक्षा के साथ सेवा और श्रम की भावना नहीं जग रही है। इसका कुछ उत्तरदायित्व तो है माता-पिताओं पर और कुछ है शिक्षण संस्थानों पर। दूसरा कारण, शिक्षण केन्द्रों की गलत व्यवस्था है। वहाँ विद्यार्थी और अध्यापक के बीच कोई सीधा सम्पर्क नहीं है। आत्मीयता का भाव तो दूर रहा, एकदूसरे का परिचय तक नहीं हो पाता। अलगाव की एक बहत बड़ी खाई दोनों के बीच पड़ी हुई है। दोनों में अपने-अपने उत्तरदायित्वों के प्रति उदासीनता और उपेक्षा की भावना बल पकड़ रही है, श्रद्धा और स्नेह का कोई संचार वहाँ नहीं हो पा रहा है।
शिक्षा पद्धति का तीसरा कारण कुछ गम्भीर है, और वह है विदेशी भाषा में शिक्षण। हर एक देश की अपनी संस्कृति होती है, अपनी भाषा होती है। जो विचार और संस्कार अपनी भाषा के माध्यम से हमारे मन में उतर सकते हैं, वे एक विदेशी भाषा के सहारे कभी भी नहीं उतर सकते। जो भाव और श्रद्धा 'भगवान्' शब्द के उच्चारण के साथ हमारे हृदय में जागृत होती है, वह 'गोड' शब्द के सौ बार उच्चारण से भी नहीं हो सकती-- यह एक अनुभूत सत्य है। दूसरी बात मातृभाषा के माध्यम से विद्यार्थी जितना विस्तृत ज्ञान सहजतया प्राप्त कर सकता है, उतना विदेशी भाषा के माध्यम से कभी भी नहीं कर सकता। अन्य भाषा सीख कर उसके द्वारा ज्ञान प्राप्त करने में बड़ी कठिनाई और श्रम उठाना पड़ता है और इस कारण विद्यार्थी का ज्ञान-क्षेत्र सीमित तथा संकुचित रह जाता है। संसार के प्रायः समस्त उन्नतिशील एवं स्वतन्त्र राष्ट्रों में शिक्षा का माध्यम वहाँ की मातृभाषा या फिर राष्ट्रीय भाषा ही है, परन्तु भारत आज स्वतन्त्र होकर भी विदेशी भाषा में अपनी सन्तानों को शिक्षित कर रहा है, यह जहाँ उपहासास्पद बात है, वहाँ विचारणीय भी है। अपनी सभ्यता, संस्कृति और जीवन के सम्यक-निर्माण के लिए अपनी मात-भाषा या राष्ट भाषा में शिक्षण होना बहुत ही आवश्यक है।
मैं समझता हूँ, आज हमारी शिक्षा, हमारे शिक्षार्थी और शिक्षक तीनों ही राष्ट्र के सामने एक समस्या बनकर खड़े हो रहे हैं। इस दिनोंदिन उलझती हुई समस्या का हल हमें खोजना है। देश को यदि अपनी संस्कृति और सभ्यता से अनुप्राणित रखना है, तो हमें इन तीनों बातों के सन्दर्भ में आज की समस्या को देखना चाहिए और उसका यथोचित हल खोजना चाहिए। शिक्षा जो जीवन का पवित्र और महान् प्रादर्श है, उसे अपने पवित्रता के धरातल पर स्थिर रखने के लिए हमें इस विषय को गहराई से सोचना चाहिए। जीवन के द्वारा, जीवन के लिए, जीवन की शिक्षा ही वस्तुतः शिक्षा का आदर्श स्वरूप है। इसीसे निकली हुई शिक्षा से, हम जीवन के सर्वांगीण-~-शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक विकास की आशा कर सकते हैं। अतः शिक्षा को जीवन की समस्या नहीं, अपितु समाधान बनना चाहिए। और वह समाधान तभी बनेगी, जब उसमें साँस्कृतिक-चेतना जागृत होगी।
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विद्यार्थो जीवन : एक नव-अंकुर Jain Education Intemational
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