Book Title: Panna Sammikkhaye Dhammam Part 01
Author(s): Amarmuni
Publisher: Veerayatan

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Page 402
________________ समाज को अन्ध-विश्वासों से मुक्त करा सके, दुःख और कष्टों से मुक्ति दिला सके, वही सच्ची विद्या है। विद्या भोग-विलास की या बौद्धिक कसरत की वस्तु नहीं है । वह अपने में एक परम पवित्र संस्कारी भाव है । बुद्धि को स्वार्थ और अज्ञान के घेरे से निकालकर परमार्थ, जन सेवा और ज्ञान के उन्मुक्त वातावरण में लाकर उपस्थित कर देने में ही विद्या की उपादेयता है । जब तुम्हारे स्वार्थं परिवार के हितों से टकराते हों, तो तुम अपने स्वार्थी की बलि देकर परिवार का हित करने का निर्णय कर सको और पारिवारिक हित के सामने समाज के हितों को मुख्यता देकर चल सको, तब तो तुम्हारे ज्ञान की, बुद्धि की कुछ सार्थकता है, अन्यथा अपने स्वार्थ हेतु तो जीवन भर कीड़े-मकोड़े भी, पशु-पक्षी - जलचर भी और वन-मानुष भी यत्नशील रहते ही हैं । राष्ट्र और समाज के हितों के प्रश्न पर श्राप भी, अपने भाई-भतीजे और बिरादरी का ही एकांगी स्वार्थ ले कर सोचते हैं । क्षुद्र प्रलोभनों के सामने आपका समाज और राष्ट्र प्रेम यदि पराजित हो जाता है, तो आप वास्तव में शिक्षित नहीं कहे जा सकते। इसके विपरीत यदि आप आगे बढ़ कर समाज और राष्ट्र के कल्याण के लिए एक दिन अपने समस्त स्वार्थों का समग्र रूप से बलिदान कर सकें, अपने व्यक्तिगत भोग और सुख की अपेक्षात्रों को ठोकर मार कर जीवन में संयम और इन्द्रियनिग्रह का आदर्श उपस्थित कर सकें, तो आप सही अर्थ में सुशिक्षित, सुसंस्कृत तथा सभ्य हैं । आप के शिक्षण एवं ज्ञान से यही अपेक्षा है, भारतीय संस्कृति को । मैं आपसे ऊपर कह चुका हूँ कि रावण इतना बड़ा विद्वान् होते हुए भी ज्ञानी क्यों नहीं माना गया ? चूंकि उसका ज्ञान इन्द्रियों की दासता के लिए था। वह पंडित होकर भी अपने आप पर संयम नहीं रख सका था। सीता को लाते समय वह जानता था कि यह मेरे विनाश का निमन्त्रण है। सोने की लंका के सुन्दर उपवनों को जलाने के लिए यह दहकती हुई आग है । किन्तु यह जानकर भी वह आत्मसंयम खो बैठा और अपने हाथ अपनी चिता तथा अपने साम्राज्य की चिता तैयार कर ली । इसीलिए भारतीय संस्कृति का यह सन्देश है कि ज्ञान का सार है-संयम ! अपने आप पर संयम ! विद्या का उद्देश्य है - विमुक्ति ! अपने स्वार्थ और अहंकार से मुक्ति ! हमारे शिक्षण केन्द्र : एक बात यहाँ मैं स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि हम जिस प्रकार की शिक्षा, ज्ञान और विद्या का आदर्श उपस्थित करते हैं, क्या उस प्रकार की शिक्षा हमारी शिक्षण संस्थाएँ आज दे रही हैं ? जहाँ तक मैं समझता हूँ, इसका उत्तर नकारात्मक ही होगा । प्राज की जो शिक्षा-पद्धति है, वह मूलतः गलत समझ पर चल रही है। भारत के शिक्षाशास्त्री इस बात को अनुभव करने लगे हैं कि विद्यार्थियों को, विद्यालयों में, शिक्षण केन्द्रों में, जो शिक्षा और संस्कार मिलने चाहिए, वे नहीं मिल रहे हैं । अध्यापक और विद्यार्थी के बीच जो मधुर और शिष्ट सम्बन्ध रहने चाहिए, वे आज कहाँ हैं ? भारतीय संस्कृति में गुरुशिष्य के संबंध का एक उच्च प्रादर्श है। गुरु उसका अध्यापक भी होता है और अभिभावक भी। वह शिष्य के चरित्र का निर्माता होता है । उच्च संस्कारों और संकल्पों का सर्जक होता है । अपने उज्ज्वल चरित्र और सत्कर्मों की प्रतिच्छाया शिष्य के हृदयपटल पर गुरु जितनी कुशलता से अंकित कर सकता है, उसमें जीवन भर सकता है, वह दूसरों के लिए सहज संभव नहीं है । पर आज गुरु-शिष्य का सम्बन्ध क्या है ? आज का अध्यापक अपने को एक वेतनभोगी नौकर मानता है । वह अपने आपको 'गुरु' अनुभव ही नहीं करता, उसके मन में कर्तव्य और उत्तरदायित्व की कोई धारणा ही नहीं होती, कोई उदात्त परिकल्पना ही नहीं जगती । प्राचीन समय में गुरुकुल पद्धति से शिक्षा दी जाती थी। उस काल की स्थितियों को देखने से पता चलता है कि छान गुरुकुल में अपने सहपाठियों एवं शिक्षकों के साथ बड़े ही ग्रानन्द एवं उल्लास के साथ सह-जीवन प्रारम्भ करता था, गुरुकुलों का वातावरण विद्यार्थी जीवन : एक नव अंकुर Jain Education International For Private & Personal Use Only ३५३ www.jainelibrary.org.

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