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_ जीवन में सफलता का एकमात्न मूल मंत्र है, व्यक्ति की अपनी प्रकृत्रिम सहज विनम्रता। नीति भी है--
"विद्या ददाति विनयं, विनयाद् याति पात्रताम् ।
पात्रत्वाद् धनमाप्नोति, धनाद् धर्म ततः सुखम् ॥" एक अंग्नेज विचारक ने भी यही कहा है
"He that is down needs fear no fall." तुलसीदासजी ने इसे एक रूपक के माध्यम से इस प्रकार स्पष्ट किया है--
"बरसहि जलद भूमि नियराए। जथा नवहि बुध विद्या पाए ॥"
अतः स्पष्ट है, जिसके अन्तर्मन में विनम्रता का वास है, वही सफल है। विद्या प्राप्ति का यही सामाजिक एवं धार्मिक उच्चतम लक्ष्य है। छात्र : भविष्य के एकमात्र कर्णधार :
छान देश के दीपक हैं, जाति के आधार है और समाज के भावी निर्माता हैं। विश्व का भविष्य उनके हाथों में है। इस पृथ्वी पर स्वर्ग उतारने का महान कार्य उन्हीं को करना है। उन्हें स्वयं महान बनना है और मानव जाति के मंगल के लिए अथक श्रम करना है। विद्यार्थी जीवन इसकी तैयारी का स्वर्ण-काल है। अतः छात्रों को अपने सर्वोपयोगी विराट जीवन के निर्माण के लिए सतत उद्यत रहना है। एक अपूर्व प्राशा से भरे कोटि-कोटि नेत्र उनकी ओर देख रहे हैं। अतः उन्हें अपने जीवन में मानव-समाज के लिए मंगल का अभिनव द्वार खोलने का संकल्प लेना है। इस महान दायित्व को अपने मन में धारण करके उन्हें अपने जीवन का निर्माण शुरू कर देना है। इसी से विश्व का कल्याण हो सकता है और उनकी आशाएँ सफल हो सकती है। शिक्षा, समस्या और समाधान :
__ आज के युग में शिक्षा का प्रचार-प्रसार बड़ी तीव्रगति से हो रहा है। धड़ल्ले के साथ नए-नए विद्यालय, पाठशालाएँ एवं कालेज खुलते जा रहे हैं, और जिधर देखो, उधर ही विद्यार्थियों की भीड़ जमा हो रही है। जिस गति से विद्यालय खुलते जा रहे हैं, उससे भी अधिक तीव्रगति से विद्यार्थी बढ़ रहे हैं। कहीं दो-दो और कहीं तीन-तीन शिफ्ट चल रही हैं। दिन के भी और रात के भी कालेज चल रह है। अभिप्राय यह है कि आज का युग शिक्षा की ओर तीव्रगति से बढ़ रहा है। गुजराती में एक कहावत है, जिसका भाव है-माज के युग में तीन चीजें बढ़ रही है "चणतर, जणतर और भणतर।" नये-नये निर्माण हो रहे हैं। बाँध और विशाल भवन बन रहे हैं। जिधर देखो, भवन खड़े हो रहे है, बड़ी तेजी से पाँच-पाँच, सात-सात, दस-दस मंजिल की अट्टालिकाएँ सिर उठाकर प्राकाश से बातें करने को उद्यत है। भवन-निर्माण, जिसे गुजराती में 'चणतर' कहते हैं, पहले की अपेक्षा सैकड़ों गुना बढ़ गया है। फिर भी लाखों मनुष्य बे-घरबार है, दिन-भर सड़कों पर इधर-उधर भटकते हैं और रात को फुटपाथ पर जीवन बिताते हुए, एक दिन दम तोड़ देते हैं। जिन्दगी उनकी खुले आसमान के नीचे बीतती है। सिर छिपाने को उन्हें एक दीवाल का कोना भी नहीं मिलता। यह स्थिति क्यों हो रही है ? कारण यह है कि जिस तेजी से 'घणतर' के रूप में ये मकान बन रहे हैं, उससे भी अधिक तीव्र गति से 'जणतर' के रूप में जन्म लेने वाले भी बढ़ रहे हैं। यदि एक बम्बई जैसे शहर में दिन-भर में औसत एक मकान बनता होगा, तो नए मेहमान सौ से भी ऊपर पैदा हो जाते हैं। जणतर अबाधगति से बढ़ रहा है, इसीलिए देश के सामने खाद्य-संकट की समस्या विकराल सुरसा राक्षसी के समान मुंह फैलाए निगल जाने को लपक रही है। क्या मकान-संकट, क्या वस्त्र-संकट
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पन्ना समिक्खए धम्म
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