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भगवया पावणं सुकहियं" समस्त प्राणिजगत् की सुरक्षा एवं दया भावना से प्रेरित हो कर उसके कल्याण के लिए भगवान् ने उपदेश दिया ।
परिभाषा और प्रयोजन कहीं भिन्न-भिन्न होते हैं और कहीं एक भी। यहाँ परिभाषा में प्रयोजन स्वत: निहित है । यों शास्त्र की परिभाषा में ही शास्त्र का प्रयोजन स्पष्ट हो गया है, और अलग प्रयोजन बतला कर भी यह स्पष्ट कर दिया गया है कि शास्त्र का शुद्ध प्रयोजन विश्व के कल्याण का मार्ग प्रशस्त करना है। शास्त्र के इस प्रयोजन को जैन भी मानते हैं, बौद्ध और वैदिक भी मानते हैं, ईसाई और मुसलमान भी यही बात कहते हैं- "ईसा और मुहम्मद साहब दुनियाँ की भलाई के लिए प्रेम और मुहब्बत का पैगाम लेकर आए ।"
मैं समझता हूँ, शास्त्र का यह एक ऐसा व्यापक और विराट उद्देश्य है, जिसे कोई भी तत्त्व-चिन्तक चुनौती नहीं दे सकता ।
जैन श्रुतपरम्परा के महान् ज्योतिर्धर प्राचार्य हरिभद्र के समक्ष जब शास्त्र के प्रयोजन का प्रश्न आया, तो उन्होंने भी इसी बात को दुहराते हुए उत्तर दिया-"मलिनस्य यथात्यन्तं जलं वस्त्रस्य शोधनम् । अन्तःकरणरत्नस्य तथा शास्त्रं विदुर्बुधाः ।। "
जिस प्रकार जल वस्त्र की मलिनता का प्रक्षालन करके उसे उज्ज्वल बना देता है, वैसे ही शास्त्र भी मानव के अन्तःकरण में स्थित काम, क्रोध यादि कालुष्य का प्रक्षालन करके उसे पवित्र तथा निर्मल बना देता है । इस प्रकार भगवान् महावीर से लेकर एक हजार से कुछ अधिक वर्ष तक के चिन्तन में शास्त्र की यही एक सर्वमान्य परिभाषा प्रस्तुत हुई - " जिसके द्वारा श्रात्म-परिबोध हो, आत्मा श्रहिंसा एवं संयम की साधना के द्वारा पवित्रता की ओर गति करे, उस तत्त्व-ज्ञान को शास्त्र कहा जाता है ।"
शास्त्र के नाम पर :
मानवता के सार्वभौम चिन्तन एवं विज्ञान की नवीनतम उपलब्धियों के कारण प्राज यह प्रश्न खड़ा हो गया है कि इन शास्त्रों का क्या होगा ? विज्ञान की बात का उत्तर क्या है, इन शास्त्रों के पास ?
पहली बात मैं यह कहना चाहता हूँ, जैसी कि हमने शास्त्र की परिभाषा समझी है, वह स्वयं में एक विज्ञान है, सत्य है । तो क्या विज्ञान, विज्ञान को चुनौती दे सकता है ? सत्य, सत्य को चुनौती दे सकता है ? नहीं! एक सत्य दुसरे सत्य को काट नहीं सकता, यदि काटता है, तो वह सत्य ही नहीं है। फिर यह मानना चाहिए कि जिन शास्त्रों को हमारा मानवीय चिन्तन तथा प्रत्यक्ष विज्ञान चुनौती देता है, वे शास्त्र नहीं हो सकते, for a शास्त्र के नाम पर पलने वाले ग्रन्थ या किताबें मात्र हैं। चाहे वे जैन आगम हैं, या श्रुति स्मृतियाँ और पुराण हैं, चाहे पिटक हैं या बाइबिल एवं कुरान हैं। मैं पुराने या नये - - किन्हीं भी विचारों की अन्ध प्रतिबद्धता स्वीकार नहीं करता । शास्त्र या श्रुतिस्मृति के नाम पर आँख मूंदकर किसी चीज को सत्य स्वीकार कर लेना, मुझे सह्य नहीं है। मुझे ही क्या, किसी भी चिन्तक को सह्य नहीं है । और, फिर जो शास्त्र की सर्वमान्य व्यापक कसोटी है, उस पर वे खरे भी तो नहीं उतर रहे हैं ।
जिन शास्त्रों ने धर्म के नाम पर 'पशुहिंसा' एवं 'नर बलि' तक का प्रचार किया,
१. प्रश्नव्याकरग्र, २1१-७
२. योग- बिन्दु प्रकरण, २६
३. यज्ञार्थं पशवः सुष्टाः स्वयमेव स्वयंभूवा ।
यज्ञस्य भूत्यै सर्वस्य तस्माद्यज्ञे वधोऽवधः ।
४. वाल्मीकि रामायण (शुनः शेप) बालकाण्ड, सर्ग ६२
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मनुस्मृति, ५१३६
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पन्ना समिक्ख धम्मं
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