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"एआणि मिच्छाaिgeस, मिच्छत्तपरिग्गहियाई मिच्छासुयं । एश्राणि चेव सम्मदिट्टिस्स सम्मत्तपरिग्गहियाई सम्मसुयं ॥ "
कौन शास्त्र सच्चा है और कौन झूठा है, जब इस महत्त्वपूर्ण प्रश्न पर विचार किया गया, तो एक बड़ा सत्य हमारे सामने आया । इस सम्बन्ध में बड़ी गंभीरता के साथ विचार करने की अपेक्षा है ।
हम बोल-चाल की भाषा में जिसे सत्य कहते हैं, सिद्धान्त की भाषा में वह कभी असत्य भी हो जाता है और जिसे हम असत्य कहते हैं, वह सत्य बन जाता है । अतः सत्य और सत्य की दृष्टि ही प्रधान वस्तु है । जिसे सत्य की दृष्टि प्राप्त है, वह वास्तव में सत्य का आराधक है। सत्य की दृष्टि कहो या मन का सत्य कहो, एक ही बात है । मन के सत्य के अभाव में वाणी का सत्य मूल्यहीन ही नहीं, वरन् कभी-कभी धूर्तता का रूप भी ले लेता है । अतः जिसे सत्य की सही आराधना करती है, उसे मन को सत्यमय बनाना होगा, सत्य के विवेक को जागृत करना होगा ।
आज तक जो महापुरुष हुए हैं और जिन्होंने मनुष्य को उदात्त प्रेरणाएँ दी हैं, यह न समझिए कि उन्होंने जीवन में बाहर से कहीं कोई प्रेरणाएँ डाली हैं। यह एक दार्शनिक प्रश्न है, मनुष्य में जो प्रेरणा है, जो हमारे भीतर अहिंसा, सत्य, करुणा, दया का रस है और जो ग्रहं के क्षुद्र- दायरे से मुक्त होकर विराट् विश्व में जगत् में भलाई करने की प्रेरणा है, क्या वह बाहर की वस्तु है ? नहीं, वह बाहर की नहीं, मानव के अपने अन्दर काही परम तत्त्व है । जो बाहर से डाला जाता है, वह तो बाहर की ही वस्तु होती है । अतः वह विजातीय पदार्थ है। विजातीय पदार्थ कितना ही घुल-मिल जाए, आखिर उस विजातीय का अस्तित्व अलग ही रहने वाला होता है । वह हमारे जीवन का अंग कदापि नहीं बन सकता ।
मिश्री डाल देने से पानी मीठा हो जाता है। मिश्री की मीठास पानी में एकमेक हुई-सी मालूम होती है और पीने वाले को आनन्द देती है, किन्तु क्या कभी वह पानी का स्वरूप बन सकती है ? आप पानी और मिश्री को अलग नहीं एक रूप समझते हैं, किन्तु वैज्ञानिक बन्धु कहते हैं -- मिश्री, मिश्री की जगह है और पानी पानी की जगह है। दोनों मिल अवश्य गए हैं और एक-रस भी प्रतीत होते हैं । किन्तु, वैज्ञानिक पद्धति एवं प्रक्रिया से विश्लेषण करने से दोनों ही अलग-अलग भी किए जा सकते हैं ।
इसी प्रकार अहिंसा, सत्य आदि हमारे जीवन में एक प्रद्भुत माधुर्य उत्पन्न कर देते हैं, जीवनगत कर्तव्यों के लिए महान् प्रेरणा को जागृत करते हैं और यदि यह सब पानी और मिश्री की तरह विजातीय हैं, मनुष्य की अपनी स्वाभाविकता नहीं हैं, जातिगत विशेषता नहीं हैं, तो वे जीवन का स्वरूप नहीं बन सकते । हमारे जीवन में एक रस नहीं हो सकते । सम्भव है, कुछ समय के लिए वे एकरूप प्रतीत हों, फिर भी समय पाकर उनका अलग हो जाना अनिवार्य होगा ।
निश्चित है कि हमारे जीवन का महत्त्वपूर्ण भाव बाह्य तत्त्वों की मिलावट से नहीं है । एक वस्तु, दूसरी को परिपूर्णता प्रदान नहीं कर सकती । विजातीय वस्तु, किसी भी वस्तु में बोझ बन कर रह सकती है, उसकी असलियत को विकृत कर सकती है, उसमें शुद्ध उत्पन्न कर सकती है । कथमपि उसे स्वाभाविक विकास और पूर्णता एवं विशुद्धि नहीं दे सकती ।
इस सम्बन्ध में जैन दर्शन ने काफी स्पष्ट चिन्तन किया है । भगवान् महावीर ने बतलाया है कि धर्म के रूप में जो प्रेरणाएँ दी जा रही हैं, उन्हें हम बाहर से नहीं डाल रहे हैं। वे तो मनुष्य की अपनी ही विशेषताएँ हैं, अपना ही स्वभाव है, निज रूप है । हम उनके होने की केवल सूचना मात्र देते हैं ।
" वत्सहावो धम्मो " वस्तु का अपना स्वभाव ही उसका अपना धर्म होता है ।
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पना समिक्er धम्मं
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