Book Title: Panna Sammikkhaye Dhammam Part 01
Author(s): Amarmuni
Publisher: Veerayatan

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Page 360
________________ व्यक्ति और समाज इस पृथ्वी पर मनुष्य एक सर्वाधिक विकसित एवं प्रभावशाली प्राणी है। उसके विचार, चिन्तन एवं मनन का संसार के वातावरण पर बहुत महत्त्वपूर्ण असर होता रहा है। सृष्टि के विकास-ह्रास तथा 'उत्थान-पतन में उसके विचारों का बहुत बड़ा योग रहा है। कुछ गहराई में जाने से पता चलता है कि मनुष्य वैसे तो स्वयं में एक क्षुद्र इकाई है, एक सीमित सत्ता है, किन्तु सष्टि के साथ वह शत-सहस्र रूपों में जुड़ा हुआ है। परिवार के रूप में, समाज एवं राष्ट्र के रूप में, धर्म, संस्कृति और सभ्यता के रूप में, वह एक होकर भी 'अनेक रूप' होकर चल रहा है, यही उसकी विशेषता है। पार्थिव शरीर की दृष्टि से देखा जाए, तो उसका 'अस्तित्व', उसका 'अपनत्व' एक मृत्पिण्ड तक ही सीमित रह जाता है। शरीर के वैयक्तिक सुख-दुःख के भोग में वह अवश्य अपने सीमित क्षेत्र में ही घूमता है, किन्तु सुख-दुःख का स्वतन्त्र-भोग करते हुए भी वह समाज एवं संसार से सर्वथा निरपेक्ष रह कर नहीं जी सकता। उसकी भावनाओं का, विचारों और प्रवृत्तियों का यदि ठीक से विश्लेषण करें, तो उसका एक व्यापक एवं विराट रूप हमारे सामने प्रस्तुत हो जाता है। उसके अन्तस्तल में छिपे हुए स्नेह और प्रेम की व्याख्या करें, तो देखेंगे कि वह एक नहीं 'अनेक रूप' है। उसका घेरा सीमित नहीं, असीम है। उसका अन्तर्जगत् बहुत विराट् है, वह अपने आप में सृष्टि का विराट रूप लिए हुए है। समाज के विकास की भूमिका : __जब तक मनुष्य का चिन्तन अपने शरीर को ही देखता है, तब तक उसकी इच्छाएँ और प्रवृत्तियाँ केवल इस 'पिण्ड' को लेकर ही चलती हैं। ऐसी स्थिति में जब कभी वह अपने सुखदुःख का विचार करता है, तो स्वयं का, केवल स्वयं के पिण्ड का ही विचार करके रह जाता है, दृष्टि घूम-फिर कर अपने दायरे पर ही पाकर केन्द्रित हो जाती है। तब शरीर के संकुचित घेरे में बँधा रहकर वह इतना संकुचित हो जाता है कि आस-पास में परिवार तथा समाज के य चित्र, धर्म और संस्कृति की दिव्य परम्पराएँ, जो उसके अनन्त अतीत से जडी चली प्रा रही है, उन्हें भी वह ठीक तरह देख नहीं पाता। मनुष्य के लिए विकास की जो लम्बी कहानी है, उसे वह पढ़ नहीं पाता और केवल अपने पिण्ड की क्षुद्र-दृष्टि को लेकर ही जीवन के सीमित कठघरे में बँध जाता है। जब संकुचित दृष्टि का चश्मा हटता है, अपनी इच्छाओं और सद्भावनाओं को मानव विराट् एवं व्यापक रूप देता है, तो उसकी नजरों में अनन्त अतीत उतर पाता है, साथ-साथ अनन्त भविष्य की कल्पनाएँ भी दौड़ पड़ती है। वह क्षुद्र से विराट होता चला जाता है, सहयोग और स्नेह के सूत्र से सृष्टि को अपने साथ बाँधने लगता है। अध्यात्म की भाषा में वह जीव से ब्रह्म की अोर, आत्मा से परमात्मतत्त्व की ओर अग्रसर होता है। अग्नि की जो एक क्षुद्र चिनगारी थी, वह विराट् ज्योति के रूप में प्रकाशमान होने लगती है। यही व्यक्ति से समाज की ओर तथा जीव से ब्रह्म की ओर बढ़ना है। जो अपनी क्षुद्र दैहिक इच्छाओं और वासनाओं में सीमित रहता है, वह क्षुद्र-संसारी प्राणी की कोटि में आता है, किन्तु जब वही आगे बढ़कर अपने स्वार्थ को, इच्छा और भावना को विश्व के स्वार्थ (लाभ) में विलीन कर देता है, अनन्त के प्रति अपने आपको अर्पित कर देता है, हृदय के असीम स्नेह, करुणा एवं दया व्यक्ति और समाज ३४१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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