Book Title: Panna Sammikkhaye Dhammam Part 01
Author(s): Amarmuni
Publisher: Veerayatan

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Page 372
________________ काम करते हैं। एक-दूसरे के सहयोगी बनकर जहाँ लोग अपनी जीवन-यात्रा करते हैं। जहाँ आपस में संगठन है, जो एक-दूसरे के हित के लिए अपने स्वार्थ को निछावर कर देने को और अपनी इच्छानों को कुचलने के लिए तैयार रहते हैं। जहाँ प्रेम-स्नेह की जीवन-दायिनी धाराएँ निरन्तर बहती रहती है, जहाँ कलह, घृणा, द्वेष नहीं होता, मैं वहीं निवास करती हूँ।" लक्ष्मी के इस कयन ने अनन्त-अनन्त काल के प्रश्न हल कर दिए। बड़ी सुन्दर बात कही है। यह तो संसार के लिए एक महान् आदर्श वाक्य है। वास्तव में लक्ष्मी ने अपनी ठीक जगह बतला दी है। बड़े-बड़े परिवारों को देखा है, जहाँ पर लक्ष्मी के ठाठ लगे रहते हैं। किन्तु, जब उन परिवारों मन-मुटाव हुआ, क्रोध की आग जलने लगी, वैर-भाव पैदा हुआ, तो वह वैभव और आनन्द नहीं रह पाया। धीरे-धीरे ऐश्वर्य क्षीण होने लगा और लक्ष्मी रूठ कर चल दी वहाँ से। जो बात क्रोध के सम्बन्ध में है, वही मान के सम्बन्ध में है। अभिमानी व्यक्ति किसी का कुछ भी नहीं रहता। वह कग भर कोई काम करता है, तो मग भर उसका अहंकार रखता है। वह समझता है, मेरे बराबर कोई है ही नहीं। वह सब पर अपना रौब गांठता है। किसी को कुछ नहीं समझता। गुणीजनों के प्रति आदर-भाव, प्रमोद-भाव, तो उसके उद्दण्ड मन में कभी उद्भूत होता ही नहीं। वह अपनी ही प्रशंसा का भूखा रहता है। दूसरों के गुणों की प्रशंसा करते समय, तो उसकी स्व-प्रशंसा मुखर चपल जिह्वा को लकवा मार जाता है। अतः मान पर विजय आवश्यक है और वह विनय, विनम्रता एवं मधुरता से साध्य है। अन्तिम दो कपाय है.---माया और लोभ । माया. छल-कपट एक तरह से जीवन का कैसर है। वह अन्दर-ही-अन्दर जीवन को विषाक्त बनाता रहता है। दंभी व्यक्ति का कोई मित्र नहीं रह सकता। मायावी व्यक्ति की जिह्वा पर अमृत रहता है, किन्तु मन में हलाहल विष भरा रहता है। अतः मैत्री की साधना के लिए माया का परिहार आवश्यक है और यह सहज सरलता के निर्मल भाव से हो सकता है। लोभ-कवाय सत्र से भयंकर है। श्रमण भगवान महावीर ने लोभ को सर्व विनाशी बताया है। जहाँ लोभ है, वहाँ परिवार, समाज, और राष्ट्र सेवा एवं हित की भावना कहाँ रह सकती है ? धर्म का तो उसमें अंश मात्र नहीं रहता। धर्म, निर्लोभता में, वीतरागता में रहता है। साधना का प्राग अनासक्ति है, निष्कामता है। अतः साधक के लिए लोभ-विजय आवश्यक है और वह हो सकता है, एकमात्र संतोष से। उक्त विजय-यात्रा के लिए अपेक्षित है, निरन्तर स्वाध्याय, चिन्तन और मनन । विकृतियों में दोष-दर्शन और सुकृतियों में गुण-दर्शन, अन्तर्जीवन की पवित्रता के लिए मंगल १. गुरवो यन्त्र पूज्यन्ते, वाणी यत्र सुसंस्कृता। अदन्तकलहो यत्र, तत्र शक्र! वसाम्यहम् ॥ २. कोहो पीई पणासेइ, माणो विणयनासणो। माया मित्ताणि नासेइ, लोभो सव्व विणासणो। दशवकालिक सूत्र, ८,३८. अन्तर्यात्रा Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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