Book Title: Panna Sammikkhaye Dhammam Part 01
Author(s): Amarmuni
Publisher: Veerayatan

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Page 392
________________ अभिप्राय यह है कि मनुष्य ने अपनी अविराम जिज्ञासा की प्रेरणा से ही विश्व को यह रूप प्रदान किया है। वह निरन्तर बढ़ता जा रहा है और विश्व को निरन्तर अभिनव स्वरूप प्रदान करता जा रहा है। परन्तु यह सब संभव तभी हुअा, जबकि वह प्रकृति की पाठशाला में एक विनम्र विद्यार्थी होकर प्रविष्ट हा। इस रूप में मनुष्य अनादि काल से विद्यार्थी रहा है और जब तक विद्यार्थी रहेगा उसका विकास बराबर होता रहेगा। अक्षर-ज्ञान ही शिक्षा नहीं : ____ अक्षरों की शिक्षा ही सब-कुछ नहीं है। कोरी अक्षर-शिक्षा में जीवन का विकास नहीं हो सकता। जब तक अपने और दूसरे के जीवन का ठीक अध्ययन नहीं है, व्यापक बुद्धि नहीं है, समाज और राष्ट्र की गुत्थियों को सुलझाने की और अमीरी तथा गरीबी के प्रश्नों को हल करने की क्षमता नहीं पाती है, तब तक शिक्षा की कोई उपयोगिता नहीं है। केवल पुस्तकें पढ़ लेने का अर्थ शिक्षित हो जाना नहीं है। एक आचार्य ने ठीक ही कहा है "शास्त्राण्यधीत्यापि भवन्ति मूर्खाः" अर्थात् बड़े-बड़े पोथे पढ़ने वाले भी मुर्ख होते हैं। जिसने शास्त्र तोते की तरह रट कर मान्न कंठस्थ कर लिए हैं, किन्तु अपने परिवार, समाज और राष्ट्र के जीवन को ऊँचा उठाने की बुद्धि नहीं पाई है, उसके शास्त्र-पठनन का कोई मूल्य एवं अर्थ नहीं है। इस तरह के शुक-अध्ययन के सम्बन्ध में प्राचार्य भद्रबाहु ने ठीक ही कहा है---"गधे की पीठ पर चन्दन की बोरियाँ भर-भर कर लाद दी गई, काफी वजन लद गया, फिर भी उस गधे के भाग्य में क्या है ? जो बोरियाँ लद रही हैं, वे उसके लिए क्या है ? उसकी तकदीर में तो बोझ ढोना ही बदा है। उसके ऊपर चाहे लकड़ियाँ लाद दी जाएँ या चन्दन, हीरे और जवाहरात लाद दिए जाएँ, या मिट्टी-पत्थर, वह तो सिर्फ वजन ही महसूस करेगा। चन्दन की सुगन्ध का महत्त्व और मूल्य प्रांक पाना उसके भाग्य में नहीं है।" विद्या का वास्तविक अर्थ : कुछ लोग शास्त्रों को और विद्याओं को, चाहे वह इस लोक-सम्बन्धी हों या परलोक सम्बन्धी, भौतिक विद्याएँ हों या प्राध्यात्मिक विद्याएँ, सबको अपने मस्तक पर लादे चले जा रहे हैं, किन्तु वस्तुतः ये केवल उस गधे की तरह ही मात्र भार ढोने वाले हैं। वे दुनिया भर की दार्शनिकता बघार देंगे, व्याकरण की गढ़ फक्किकाएँ रट कर शास्त्रार्थ कर लेंगे, परन्तु उससे होना क्या है ? क्रियाहीन कोरे ज्ञान की क्या कीमत है ? वह ज्ञान ही क्या, वह विद्या ही कैसी, जो आचरण का रूप न लेती हो? जो जीवन की बेड़ियाँ न तोड़ सकती हो, ऐसी विद्या बन्ध्या है, ऐसा ज्ञान निष्फल है। ऐसी शिक्षा तोतारटंत के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। महर्षि मनु ने विद्या की सार्थकता बतलाते हुए ठीक ही कहा है "सा विद्या या विमुक्तये।" अर्थात् विद्या वही है, जो हमें विकारों से मुक्ति दिलाने वाली हो, हमें स्वतन्त्र करने वाली हो, हमारे बन्धनों को तोड़ने वाली हो। ___ मुक्ति का अर्थ है-स्वतन्त्रता । समाज की कुरीतियों, कुसंस्कारों, अन्धविश्वासों, गलतफहमियों और बमों से, जिनसे वह जकड़ा है, छुटकारा पाना ही सच्ची स्वतन्त्रता है । १. जहा खरो चंदण-भारवाही, - भारस्स भागी न हु चंदणस्स ।-प्रावश्यक नियुक्ति, १०० विद्यार्थी जीवन : एक नव-अंकुर Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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