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जीने की कला : कर्म में अकर्म
जीवन एक यात्रा है। यात्रा वह होती है, जिसमें लक्ष्य की प्राप्ति होने तक चरण कभी अवरुद्ध नहीं होते, गति कभी बन्द नहीं होती। मनुष्य के जीवन में यह यात्रा निरन्तर चलती रही है, कर्म की यह गति कभी भी अवरुद्ध नहीं हुई है, इसीलिए तो यह यात्रा है।
दुर्भाग्य ही कहिए कि भारतवर्ष में कुछ ऐसे दार्शनिक धर्माचार्य पैदा हए हैं, जिन्होंने इस यात्रा को अवरुद्ध करने का, अंधकारमय बनाने का सिद्धान्त स्थापित किया है। उन्होंने कहा-निष्कर्म रहो, कर्म करने की कोई आवश्यकता नहीं, जो भगवान् ने रच रखा है, वह अपने आप प्राप्त होता जाएगा
"अजगर करे न चाकरी, पंछी करे न काम ।
दास मलूका कह गए, सबके दाता राम॥" __ ऐसे कथनों को जीवन सूत्र के रूप में प्रस्तुत किया गया। 'कुछ करो मत, अजगर की तरट पड़े रहो, राम देने वाला है।'
प्रश्न हो सकता है कि ऐसे विचारों से क्या यथार्थ समाधान मिला भी है कभी? जीवन में क्या शान्ति और आनन्द प्राप्त हुआ है ? सर्व साधारण जन और इन सिद्धान्तों के उपदेष्टा स्वयं भी, क्या सर्वथा निष्कर्म रह कर जीवन की यात्रा पार कर सके ? सबका उत्तर होगा'नहीं'। तब तो इसका सीधा अर्थ है कि निष्कर्म रहने की वृत्ति सही नहीं है, मनुष्य निष्कर्म रह कर जी नहीं सकता। सर्वनाशी-कषाय :
मनुष्य परिवार एवं समाज के बीच रहता है, अतः वहाँ की जिम्मेदारियों से वह मुह नहीं मोड़ सकता। आप यदि सोचें-परिवार के लिए कितना पाप करना पड़ता है, यह बन्धन है, भागो इससे, इसे छोड़ो!--तो क्या काम चल सकता है ? और छोड़कर भाग भी चलो, तो कहाँ ? वनों और जंगलों में भागने वाला क्या निष्कर्म रह सकता है ? पर्वतों की तमस्-गुहायों में समाधि लेकर क्या बन्धन से सर्वथा मुक्त हुआ जा सकता है ? सोचिए, ऐसा कौन-सा स्थान है, कौन-सा साधन है, जहाँ आप निष्कर्म रह कर जी सकते हैं। वस्तुतः निष्कर्म अर्थात् क्रियाशून्यता जीवन का समाधान नहीं है, अपितु जीवन से पलायन है।
भगवान महावीर ने इस प्रश्न पर समाधान दिया है--निष्कर्म रहना जीवन का धर्म नहीं है। जीवन, है, तो कुछ-न-कुछ कर्म भी है। केवल कर्म भी जीवन का श्रेय नहीं, किन्तु कर्म करके अकर्म रहना, कर्म करके कर्म की भावना से अलिप्त रहना-यह जीवन का सम्यक मार्ग है। बाहर में कर्म, भीतर में अकर्म-यह जीवन की कला है।
मैंने कहा--कोई भी मनुष्य निष्कर्म नहीं रह सकता। कर्म तो जीवन में क्षण-क्षण होता रहता है, श्रीमद् भगवद् गीता में कर्मयोगी श्रीकृष्ण की वाणी है
नहि कश्चित् क्षणमपि, जातु तिष्ठत्यकर्मकृत् !" जीने की कलाः कर्म में अकर्म
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की तमस्-गुहागा
कौन-सा साधन ही
नहीं है, अपितु जावन
जीवन का धर्म
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